श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 631

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति के तीन गुण
अध्याय 14 : श्लोक-22-25


तात्पर्य

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से तीन प्रश्न पूछे और उन्होंने क्रमशः एक-एक का उत्तर दिया। इन श्लोकों में कृष्ण पहले यह संकेत करते हैं कि जो व्यक्ति दिव्य पद पर स्थित है, वह न तो किसी से ईर्ष्या करता है और न किसी वस्तु के लिये लालायित रहता है। जब कोई जीव इस संसार में भौतिक शरीर से युक्त होकर रहता है, तो यह समझना चाहिए कि प्रकृति के तीन गुणों में से किसी एक के वश में है जब वह इस शरीर से बाहर हो जाता है, तो वह प्रकृति के गुणों में छूट जाता हैं लेकिन जब तक वह शरीर से बाहर नहीं आ जाता, तब तक उसे उदासीन रहना चाहिये। उसे भगवान की भक्ति में लग जाना चाहिए जिससे भौतिक देह से उसका ममत्व स्वतः विस्मृत हो जाये। जब मनुष्य भौतिक शरीर के प्रति सचेत रहता है तो वह केवल इन्द्रियतृप्ति के लिये कर्म करता है, लेकिन जब वह अपनी चेतना कृष्ण में स्थानान्तरित कर देता है, तो इन्द्रियतृप्ति स्वतः रुक जाती है। मनुष्य को इस भौतिक शरीर की आवश्यकता नहीं रह जाती है और न उसे इस भौतिक शरीर के आदेशों का पालन करने की आवश्यकता रह जाती है। शरीर के भौतिक गुण कार्य करेगें, लेकिन आत्मा ऐसे कार्यों से पृथक रहेगा। वह किस तरह पृथक रहता है? वह न तो शरीर को भोग करना चाहता है, न उससे बाहर जाना चाहता है। इस प्रकार दिव्य पद पर स्थित भक्त स्वयमेव हो जाता है। उसे प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त होने के लिये किसी प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं जाती।

अगला प्रश्न दिव्य पद पर आसीन व्यक्ति के व्यवहार के सम्बन्ध में है। भौतिक पद पर स्थित व्यक्ति शरीर को मिलने वाले तथाकथित मान तथा अपमान से प्रभावित होता है, लेकिन दिव्य पद पर आसीन व्यक्ति कभी ऐसी मिथ्या मान तथा अपमान से प्रभावित नहीं होता है। वह कृष्णभावनामृत में रहकर अपना कर्तव्य निबाहता है और इसकी चिन्ता नहीं करता कि कोई व्यक्ति उसका सम्मान करता है या अपमान। वह उन बातों को स्वीकार कर लेता है, जो कृष्णभावनामृत में उसके कर्तव्य के अनुकूल हैं, अन्यथा उसे किसी भौतिक वस्तु की आवश्यकता नहीं रहती, चाहे वह पत्थर हो, या सोना। वह प्रत्येक व्यक्ति को जो कृष्णभावनामृत के सम्पादन में उसकी सहायता करता है, अपना मित्र मानता है और वह अपने तथाकथित शत्रु से भी घृणा नहीं करता। वह समभाव वाला होता है और सारी वस्तुओं को समान धरातल पर देखता है, क्योंकि वह इसे भलीभाँति जानता है कि उसे इस संसार से कुछ भी लेना-देना नहीं है। उसे सामाजिक तथा राजनीतिक विषय तनिक भी प्रभावित नहीं कर पाते, क्योंकि वह क्षणिक उथल-पुथल तथा उत्पातों की स्थिति से अवगत रहता है। वह अपने लिये कोई कर्म नहीं करता। कृष्ण के लिये वह कुछ भी कर सकता है, लेकिन अपने लिये वह किसी प्रकार का प्रयास नहीं करता। ऐसे आचरण से मनुष्य वास्तव में दिव्य पद पर स्थित हो सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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