श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 752

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-23


नियतं संरहितमरागद्वेषत: कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥23॥[1]

भावार्थ

जो कर्म नियमित है और जो आसक्ति, राग या द्वेष से रहित कर्मफल की चाह के बिना किया जाता है, वह सात्त्विक कहलाता है।

तात्पर्य

विभिन्न आश्रमों तथा समाज के वर्णों के आधार पर शास्त्रों में संस्तुत वृत्तिपरक कर्म, जो अनासक्त भाव से अथवा स्वामित्व के अधिकारों के बिना, प्रेम-घृणा-भावरहित परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए आसक्ति या अधिकार की भावना के बिना कृष्णभावनामृत में किये जाते हैं, सात्त्विक कहलाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नियतम्= नियमित; संग-रहितम्= आसक्ति रहित; अराग-द्वेषतः= राग= द्वेष से रहित; कृतम्= किया गया; अफल-प्रेप्सुना= फल की इच्छा से रहित वाले के द्वारा; कर्म= कर्म; यत्= जो; तत्= वह; सात्त्विकम्= सतोगुणी; उच्यते= कहा जाता है।

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