श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 320

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-9

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥[1]

भावार्थ

मैं पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ। मैं समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ।

तात्पर्य

पुण्य का अर्थ है– जिसमें विकार न हो, अतः आद्य। इस जगत में प्रत्येक वस्तु में कोई न कोई सुगंध होती है, यथा फूल की सुगंध या जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु आदि की सुगंध। समस्त वस्तुओं में व्याप्त अदूषित भौतिक गन्ध, जो आद्य सुगंध है, वह कृष्ण हैं। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु का एक विशिष्ट स्वाद (रस) होता है और इस स्वाद को रसायनों के मिश्रण द्वारा बदला जा सकता है। अतः प्रत्येक मूल वस्तु में कोई न कोई गन्ध तथा स्वाद होता है। विभावसु का अर्थ अग्नि है। अग्नि के बिना न तो फैक्टरी चल सकती है, न भोजन पाक सकता है। यह अग्नि कृष्ण है। अग्नि का तेज (ऊष्मा) भी कृष्ण ही है। वैदिक चिकित्सा के अनुसार कुपच का करण पेट में अग्नि की मंदता है। अतः पाचन तक के लिए अग्नि आवश्यक है। कृष्णभावनामृत में हम इस वाट से अवगत होते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा प्रत्येक सक्रीय तत्त्व, सारे रसायन तथा सारे भौतिक तत्त्व कृष्ण के कारण हैं। मनुष्य की आयु भी कृष्ण के करण है। अतः कृष्ण कृपा से ही मनुष्य अपने को दीर्घालु या अल्पजीवी बना सकता है। अतः कृष्णभावनामृत प्रत्येक क्षेत्र में सक्रिय रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुण्यः – मूल, आद्य; गन्धः – सुगंध; पृथिव्याम् – पृथ्वी में; च – भी; तेजः – प्रकाश; च – भी; अस्मि – हूँ; विभावसौ – अग्नि में; जीवनम् – प्राण; सर्व – समस्त; भूतेषु – जीवों में; तपः – तपस्या; च – भी; अस्मि – हूँ; तपस्विषु – तपस्वियों में।

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