श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 739

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-10


न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशय: ॥10॥[1]

भावार्थ

सतोगुण में स्थित बुद्धिमान त्यागी, जो न तो अशुभ कर्म से घृणा करता है, न शुभकर्म से लिप्त होता है, वह कर्म के विषय में कोई संशय नहीं रखता।

तात्पर्य

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति या सतोगुणी व्यक्ति न तो किसी व्यक्ति से घृणा करता है, न अपने शरीर को कष्ट देने वाली किसी बात से। वह उपयुक्त स्थान पर तथा उचित समय पर, बिना डरे, अपना कर्तव्य करता है। ऐसे व्यक्ति को, जो अध्यात्म को प्राप्त है, सर्वाधिक बुद्धिमान तथा अपने कर्मों में संशयरहित मानना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न= नहीं; द्वेष्टि= घृणा करता है; अकुशलम्= अशुभ; कर्म= कर्म; कुशले= शुभ में; न= न तो; अनुषज्जते= आसक्त होता है; त्यागी= त्यागी; सत्त्व= सतोगुण में; समाविष्टः= लीन; मेधावी= बुद्धिमान; छिन्न= छिन्न हुए; संशयः= समस्त संशय या संदेह।

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