श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 539

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भक्तियोग
अध्याय 12 : श्लोक-10


अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमों भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।[1]

भावार्थ

यदि तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पूर्ण अवस्था (सिद्धि) को प्राप्त होगे।

तात्पर्य

यदि कोई गुरु के निर्देशानुसार भक्तियोग के विधि-विधानों का अभ्यास नहीं भी कर पाता, तो भी परमेश्वर के लिए कर्म करके उसे पूर्णावस्था प्रदान कराई जा सकती है। यह कर्म किस प्रकार जाय, इसकी व्याख्या ग्यारहवें अध्याय के पचपन वें श्लोक में पहले ही की जा चुकी है। मनुष्य में कृष्णभावनामृत के प्रचार हेतु सहानुभूति होनी चाहिए। ऐसे अनेक भक्त हैं जो कृष्णभावनामृत के प्रचार कार्य में लगे है। उन्हें सहायता की आवश्यकता है। अत: भले ही कोई भक्तियोग के विधि-विधानों का प्रत्यक्ष रूप से अभ्यास न कर सके, उसे ऐसे कार्य में सहायता देने का प्रयत्न करना चाहिये। प्रत्येक प्रकार के प्रयास में भूमि, पूँजी, संगठन तथा श्रम की आवश्यकता होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अभ्यासे=अभ्यास में; अपि=भी; असमर्थ:=असमर्थ; असि=हो; मत्-कर्म=मरे कर्म के प्रति; परम:=परायण; भव=वनो; मत्-अर्थम्=मेरे लिए; कर्माणि=कर्म; कुर्वन्=करते हुए; सिद्धिम्=सिद्धि को; अवाप्स्यसि=प्राप्त करोगे।

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