श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 750

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-21


पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ॥21॥[1]

भावार्थ

जिस ज्ञान से कोई मनुष्य विभिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न प्रकार का जीव देखता है, उसे तुम राजसी जानो।

तात्पर्य

यह धारणा कि भौतिक शरीर ही जीव है और शरीर के विनष्ट होने पर चेतना भी नष्ट हो जाती है, राजसी ज्ञान है। इस ज्ञान के अनुसार एक शरीर दूसरे शरीर से भिन्न है, क्योंकि उनमें चेतना का विकास भिन्न प्रकार से होता है, अन्यथा चेतना को प्रकट करने वाला पृथक आत्मा न रहे। शरीर स्वयं आत्मा है और शरीर के परे कोई पृथक आत्मा नहीं है। इस ज्ञान के अनुसार चेतना अस्थायी है। या यह कि पृथक आत्माएँ नहीं होतीं; एक सर्वव्यापी आत्मा है, जो ज्ञान से पूर्ण है और यह शरीर क्षणिक अज्ञानता का प्रकाश है। या यह कि इस शरीर के परे कोई विशेष जीवात्मा या परम आत्मा नहीं है। ये सब धारणाएँ रजोगुण से उत्पन्न है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पृथक्त्वेन= विभाजन के कारण; तु= लेकिन; यत्= जो; ज्ञानम्= ज्ञान; नाना-भावान्= अनेक प्रकार की अवस्थाओं को; पृथक्= विधान= विभिन्न; वेत्ति= जानता है; सर्वेषु= समस्त; भूतेषु= जीवों में; तत्= उस; ज्ञानम्= ज्ञान को; विद्धि= जानो; राजसम्= राजसी।

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