श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 690

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-20


आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥20॥[1]

भावार्थ

हे कुन्तीपुत्र! ऐसे व्यक्ति आसुरी योनि में बारम्बार जन्म ग्रहण करते हुए कभी भी मुझ तक पहुँच नहीं पाते। वे धीरे-धीरे अत्यन्त अधम गति को प्राप्त होते हैं।

तात्पर्य

यह विख्यात है कि ईश्वर अत्यन्त दयालु हैं, लेकिन यहाँ पर हम देखते हैं कि वे असुरों पर कभी भी दया नहीं करते। यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि आसुरी लोगों को जन्म-जन्मान्तर तक उनके समान असुरों के गर्भ में रखा जाता है और ईश्वर की कृपा प्राप्त न होने से उनका अधःपतन होता रहता है, जिससे अन्त में उन्हें कुत्तों, बिल्लियों तथा सुकरों जैसा शरीर मिलता है। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसे असुर जीवन की किसी अवस्था में ईश्वर की कृपा के भाजन नहीं बन पाते। वेदों में भी कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति अधःपतन होने पर कूकर-सूकर बनते हैं। इस प्रसंग में यह तर्क किया जा सकता है कि यदि ईश्वर ऐसे असुरों पर कृपालु नहीं हैं तो उन्हें सर्वकृपालु क्यों कहा जाता है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि वेदान्तसूत्र से पता चलता है कि परमेश्वर किसी से घृणा नहीं करते। असुरों को निम्नतम (अधम) योनि में रखना उनकी कृपा की अन्य विशेषता है। कभी-कभी परमेश्वर असुरों का वध करते हैं, लेकिन यह वध भी उनके लिए कल्याणकारी होता है, क्योंकि वैदिक साहित्य में पता चलता हैं कि जिस किसी का वध परमेश्वर द्वारा होता है, उसको मुक्ति मिल जाती है। इतिहास में ऐसे असुरों के अनेक उदाहरण हैं- यथा रावण, कंस, हिृरण्यकशिपु, जिन्हें मारने के लिए भगवान ने विविध अवतार धारण किये हैं। अतएव असुरों पर ईश्वर की कृपा तभी होती है, जब वे इतने भाग्यशाली होते हैं कि ईश्वर उनका वध करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आसुरीम्= आसुरी; योनिम्= योनि को; आपन्नाः= प्राप्त हुए; मूढाः= मूर्ख; जन्मनि जन्मनि= जन्मजन्मान्तर में; माम्= मुझ को; अप्राप्य= पाये बिना; एव= निश्चय ही; कौन्तेय= हे कुन्तीपुत्र; ततः= तत्पश्चात्; यान्ति= जाते हैं; अधमाम्= अधम, निन्दित; गतिम्= गन्तव्य की।

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