श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 549

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भक्तियोग
अध्याय 12 : श्लोक-17


यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स में प्रिय:।।[1]

भावार्थ

जो न कभी हर्षित होता है, न शोक करता है, जो न तो पछताता है, न इच्छा करता है, तथा जो शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।

तात्पर्य

शुद्ध भक्त भौतिक लाभ से न तो हर्षित होता है और न हानि से दुखी होता है, वह पुत्र या शिष्य की प्राप्ति के लिए न तो उत्सुक रहता है, न ही उनके न मिलने पर दुखी होता है। वह अपनी किसी प्रिय वस्तु के खो जाने पर उसके लिए पछताता नहीं। इसी प्रकार यदि उसे अभीप्सित की प्राप्ति नहीं पाती तो वह दुखी नहीं होता। वह समस्त प्रकार के शुभ, अशुभ तथा पापकर्मों से सदैव परे रहता है। वह परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए बड़ी-से-बड़ी विपत्ति सहने को तैयार रहता है। भक्ति के पालन में उसके लिए कुछ भी बाधक नहीं बनता। ऐसा भक्त कृष्ण को अतिशय प्रिय होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. य:=जो; न=कभी नहीं; हृष्यति=हर्षित होता है; न=कभी नहीं; द्वेष्टि=शोक करता है; न=कभी नहीं; शोचति=पछतावा करता है; न=कभी नहीं; काङ्क्षति=इच्छा करता है; शुभ=शुभ; अशुभ=तथा अशुभ का; परित्यागी=त्याग करने वाला; भक्ति-मान्=भक्त, य:=जो; स:=वह है;

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