श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 763

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-34


यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसंगेन फलाकाङ्क्षी धृति:सा पार्थ राजसी॥ 34॥[1]

भावार्थ

लेकिन हे अर्जुन! जिस धृति से मनुष्य धर्म, अर्थ तथा काम के फलों में लिप्त बना रहता है, वह राजसी है।

तात्पर्य

जो व्यक्ति धार्मिक या आर्थिक कार्यों में कर्मफलों का सदैव आकांक्षी होता है, जिसकी एकमात्र इच्छा इन्द्रियतृप्ति होती है तथा जिसका मन, जीवन तथा इन्द्रियाँ इस प्रकार संलग्न रहती हैं, वह रजोगुणी होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यया= जिससे; तु= लेकिन; धर्म= धार्मिकता; काम= इन्द्रियतृप्ति; अर्थान्= तथा आर्थिक विकास को; धृत्या= संकल्प या धृति से; धारयते= धारण करता है; अर्जुन= हे अर्जुन; प्रसंगेन= आसक्ति के कारण; फल-आकांक्षी= कर्मफल की इच्छा करने वाला; धृतिः= संकल्प या धृति; सा= वह; पार्थ= हे पृथापुत्र; राजसी= रजोगुणी।

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