श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 350

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवत्प्राप्ति
अध्याय 8 : श्लोक-2

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥[1]

भावार्थ

हे मधुसूदन! यज्ञ का स्वामी कौन है और वह शरीर में कैसे रहता है? और मृत्यु के समय भक्ति में लगे रहने वाले आपको कैसे जान पाते हैं?

तात्पर्य

अधियज्ञ का तात्पर्य इन्द्र या विष्णु हो सकता है। विष्णु समस्त देवताओं में, जिनमें ब्रह्मा तथा शिव सम्मिलित हैं, प्रधान देवता हैं और इन्द्र प्रशासक देवताओं में प्रधान हैं। इन्द्र तथा विष्णु दोनों की पूजा यज्ञ द्वारा की जाती है। किन्तु अर्जुन प्रश्न करता है कि वस्तुतः यज्ञ का स्वामी कौन है और भगवान किस तरह जीव के शरीर के भीतर निवास करते हैं?

अर्जुन ने भगवान को मधुसूदन कहकर सम्बोधित किया क्योंकि कृष्ण ने एक बार मधु नामक असुर का वध किया था। वस्तुतः ये सारे प्रश्न, जो शंका के रूप में हैं, अर्जुन के मन में नहीं उठने चाहिए थे, क्योंकि अर्जुन एक कृष्णभावनाभावित भक्त था। अतः ये सारी शंकाएँ असुरों के सदृश हैं। चूँकि कृष्ण असुरों के मारने में सिद्धहस्त थे, अतः अर्जुन उन्हें मधुसूदन कहकर सम्बोधित करता है, जिससे कृष्ण उस के मन में उठने वाली समस्त आसुरी शंकाओं को नष्ट कर दें।

इस श्लोक का प्रयाणकाले शब्द भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अपने जीवन में हम जो भी करते हैं, उसकी परीक्षा मृत्यु के समय होनी है। अर्जुन उन लोगों के विषय में जो निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगे रहते हैं, यह जानने के लिए अत्यन्त इच्छुक है कि अन्त समय उनकी दशा क्या होगी? मृत्यु के समय शरीर के सारे कार्य रुक जाते हैं और मन सही दशा में नहीं रहता। इस प्रकार शारीरिक स्थिति बिगड़ जाने से हो सकता है कि मनुष्य परमेश्वर का स्मरण न कर सके। परम भक्त महाराज कुलशेखर प्रार्थना करते हैं, “हे भगवान! इस समय मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ। अच्छा हो कि मेरी मृत्यु इसी समय हो जाय जिससे मेरा मन रूपी हंस आपके चरणकमलोंरूपी नाल के भीतर प्रविष्ट हो सके।” यह रूपक इसलिए प्रयुक्त किया गया है क्योंकि हंस, जो एक जल पक्षी है, वह कमल के पुष्पों को कुतरने में आनन्द का अनुभव करता है, इस तरज वह कमलपुष्प के भीतर प्रवेश करना चाहता है। महाराज कुलशेखर भगवान से कहते हैं, “इस समय मेरा मन स्वस्थ है और मैं भी पूरी तरह स्वस्थ हूँ। यदि मैं आपके चरणकमलों का चिन्तन करते हुए तुरन्त मर जाऊँ तो मुझे विश्वास है कि आपके प्रति मेरी भक्ति पूर्ण हो जायेगी, किन्तु यदि मुझे अपनी सहज मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़ी तो मैं नहीं जानता कि क्या होगा क्योंकि उस समय मेरा शरीर कार्य करना बन्द कर देगा, मेरा गला रूँध जायेगा और मुझे पता नहीं कि मैं आपके नाम का जप कर पाऊँगा या नहीं। अच्छा यही होगा कि मुझे तुरन्त मर जाने दें।” अर्जुन प्रश्न करता है कि ऐसे समय मनुष्य किस तरह कृष्ण के चरणकमलों में अपने मन को स्थिर कर सकता है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अधियज्ञः – यज्ञ का स्वामी; कथम् – किस तरह; कः – कौन; अत्र – यहाँ; देहे – शरीर में; अस्मिन् – इस; मधुसूदन – हे मधुसूदन; प्रयाण-काले – मृत्यु के समय; च – तथा; कथम् – कैसे; ज्ञेयः असि – जाने जा सकते हो; नियत-आत्मभिः – आत्मसंयमी के द्वारा।

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