श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-17
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
इस श्लोक में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मा की प्रकृति का अधिक स्पष्ट वर्णन हुआ है। सभी लोग समझते हैं कि जो सारे शरीर में व्याप्त है वह चेतना है। प्रत्येक व्यक्ति को शरीर में किसी अंश या पूरे भाग में सुख-दुख का अनुभव होता है। किन्तु चेतना की यह व्याप्ति किसी के शरीर तक ही सीमित रहती है। एक शरीर के सुख तथा दुख का बोध दूसरे शरीर को नहीं हो पाता। फलतः प्रत्येक शरीर में व्यष्टि आत्मा है और इस आत्मा की उपस्थिति का लक्षण व्यष्टि चेतना द्वारा परिलक्षित होता है। इस आत्मा को बाल के अग्रभाग के दस हजारवें भाग के तुल्य बताया जाता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में [2] इसकी पुष्टि हुई है – बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च। “यदि बाल के अग्रभाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाय और फिर इनमें से प्रत्येक भाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाय तो इस तरह के प्रत्येक भाग की माप आत्मा का परिमाप है |” इसी प्रकार यही कथन निम्नलिखित श्लोक में मिलता है– |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अविनाशि – नाशरहित; तु – लेकिन; तत् – उसे; विद्धि – जानो; येन – जिससे; सर्वम् – सम्पूर्ण शरीर; इदम् – यह; ततम् – परिव्याप्त; विनाशम् – नाश; अव्ययस्य – अविनाशी का; अस्य – इस; न कश्चित् – कोई भी नहीं; कर्तुम् – करने के लिए; अर्हति – समर्थ है।
- ↑ 5.9
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