श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 517

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-52

सुदुर्दर्शमिदं रूपं
दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य
नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।[1]

भावार्थ

श्रीभगवान् ने कहा- हे अर्जुन! तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो, उसे देख पाना अत्यन्त दुष्कर है यहाँ तक कि देवता भी इस अत्यन्त प्रिय रूप को देखने की ताक में रहते हैं।

तात्पर्य
इस अध्याय के 48 वें श्लोक में भगवान् कृष्ण ने अपना विश्वरूप दिखाना बन्द किया और अर्जुन को बताया कि अनेक ताप, यज्ञ आदि करने पर भी इस रूप को देख पाना असम्भव है अब सुदुर्दर्शम् शब्द का प्रयोग किया जा रहा है जो सूचित करता है कि कृष्ण का द्विभुज रूप और अधिक गुह्य है। कोई तपस्या, वेदाध्ययन तथा दार्शनिक चिंतन आदि विभिन्न क्रियाओं के साथ थोडा सा भक्ति-तत्त्व मिलाकार कृष्ण के विश्वरूप का दर्शन संभवतः कर सकता है, लेकिन 'भक्ति-तत्त्व' के बिना यह संभव नहीं है, इसका वर्णन पहले ही किया जा चुका है। फिर भी विश्वरूप से आगे कृष्ण का द्विभुज रूप है, जिसे ब्रह्मा तथा शिव जैसे बड़े-बड़े देवताओं द्वारा भी देख पाना और भी कठिन है। वे उनका दर्शन करना चाहते हैं और श्रीमद्भागवत में प्रमाण है कि जब भगवान् अपनी माता देवकी के गर्भ में थे, तो स्वर्ग के सारे देवता कृष्ण के चमत्कार को देखने के लिए आये और उन्होंने उत्तम स्तुतियाँ कीं, यद्यपि उस समय वे दृष्टिगोचर नहीं थे। वे उनके दर्शन की प्रतीक्षा करते रहे। मुर्ख व्यक्ति उन्हें सामान्य जन समझकर भले ही उनका उपहास कर ले और उनका सम्मान न करके उनके भीतर स्थित किसी 'निराकार' 'कुछ' का सम्मान करे, किन्तु यह सब मुर्खतापूर्ण व्यवहार है। कृष्ण के द्विभुज रूप का दर्शन तो ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवता तक करना चाहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीभगवान् उवाच - श्रीभगवान् ने कहा; सु-दुर्दर्शम् - देख पाने में अत्यन्त कठिन; इदम् - इस; रूपम् - रूप को; दृष्टवान् असि - जैसा तुमने देखा; यत् - जो; मम - मेरे; देवाः - देवता; अपि - भी; अस्य - इस; रूपस्य - रूप का; नित्यम् - शाश्वत; दर्शन-काङ्क्षिणः - दर्शनाभिलाषी।

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