श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 760

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-31


यया धर्ममधर्म च कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी ॥31॥[1]

भावार्थ

हे पृथापुत्र! जो बुद्धि धर्म तथा अधर्म, करणीय तथा अकरणीय कर्म में भेद नहीं कर पाती, वह राजसी है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यया= जिसके द्वारा; धर्मम्= धर्म को; अधर्मम्= अधर्म को; च= तथा; कार्यम्= करणीय; च= भी; अकार्यम्= अकरणीय को; एव= निश्चय ही; च= भी; अकार्यम्= अकरणीय को; एव= निश्चय ही; च= भी; अयथा= वत्= अधूरे ढंग से; प्रजानाति= जानती है; बुद्धिः= बुद्धि; सा= वह; पार्थ= हे पृथापृत्र; राजसी= रजोगुणी।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः