श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 458

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-27


उच्चै:श्रवसमश्रवानां विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।।[1]

भावार्थ

घोड़ो में मुझे उच्चैःश्रवा जानो, जो अमृत के लिए समुद्र मन्थन के समय उत्पन्न हुआ था। गजराजों में मैं ऐरावत हूँ तथा मनुष्यों में राजा हूँ।

तात्पर्य

एक बार देवों तथा असुरों ने समुद्र-मन्थन में भाग लिया। इस मन्थन से अमृत तथा विष प्राप्त हुए। विष को तो शिव जी ने पी लिया, किन्तु अमृत के साथ अनेक जीव उत्पन्न हुए, जिनमें उच्चैःश्रवा नामक घोडा भी था। इसी अमृत के साथ एक अन्य पशु ऐरावत नामक हाथी भी उत्पन्न हुआ था। चूँकि ये दोनों पशु अमृत के साथ उत्पन्न हुए थे, अतः इनका विशेष महत्त्व है और ये कृष्ण के प्रतिनिधि हैं।

मनुष्यों में राजा कृष्ण का प्रतिनिधि है, क्योंकि कृष्ण ब्रह्माण्ड के पालक हैं और अपने दैवी गुणों के कारण नियुक्त किये गये राजा भी अपने राज्यों के पालन करता होते हैं। महाराज युधिष्ठिर, महाराज परीक्षित तथा भगवान राम जैसे राजा अत्यन्त धर्मात्मा थे, जिन्होंने अपनी प्रजा का सदैव कल्याण सोचा। वैदिक साहित्य में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया है। किन्तु इस युग में धर्म के ह्रास होने से राजतन्त्र का पतन हुआ और अन्ततः विनाश हो गया है। किन्तु यह समझना चाहिए कि भूतकाल में लोग धर्मात्मा राजाओं के अधीन रहकर अधिक सुखी थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उच्चैःश्रवसम्-उच्चैःश्रवा; अश्वानाम्-घोड़ो में; विद्धि-जानो; माम्-मुझको; अमृत-उद्भवम्-समुद्र मन्थन से उत्पन्न; ऐरावतम्-ऐरावत; गज-इन्द्राणाम्-मुख्य हाथियों में; नाराणाम्-मनुष्यों में; च-तथा; नर-अधिपम्-राजा।

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