श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 765

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-36


सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दु:खान्तं च निगच्छति ॥36॥[1]

भावार्थ

हे भरतश्रेष्ठ! अब मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय में सुनो, जिनके द्वारा बद्धजीव भोग करता है और जिसके द्वारा कभी-कभी दुखों का अन्त हो जाता है।

तात्पर्य

बद्धजीव भौतिक सुख भोगने की बारम्बार चेष्टा करता है। इस प्रकार वह चर्वित चर्वण करता है। लेकिन कभी कभी ऐसे भोग के अन्तर्गत वह किसी महापुरुष की संगति से भवबन्धन से मुक्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में, बद्धजीव सदा ही किसी न किसी इन्द्रियतृप्ति में लगा रहता है, लेकिन जब सुसंगति से यह समझ लेता है कि यह तो एक ही वस्तु की पुनरावृत्ति है और उसमें वास्तविक कृष्णभावनामृत का उदय होता है, तो कभी-कभी वह ऐसे तथा कथित आवृत्तिमूलक सुख से मुक्त हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सुखम्= सुख; तु= लेकिन; इदानीम्= अब; त्रि-विधम्= तीन प्रकार का; शृणु= सुनो; मे= मुझसे; भरत-ऋषभ= हे भरतश्रेष्ठ; अभ्यासात्= अभ्यास से; रमते= भोगता है; यत्र= जहाँ; दुःख= दुख का; अन्तरम्= अन्त; च= भी; निगच्छति= प्राप्त करता है।

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