श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 407

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-20


त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्र्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।[1]

भावार्थ

जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं। वे पापकर्मों से शुद्ध होकर, इन्द्र के पवित्र स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहाँ वे देवताओं का सा आनन्द भोगते हैं।

तात्पर्य

त्रैविद्याः शब्द तीन वेदों–साम, यजुः तथा ऋग्वेद–का सूचक है। जिस ब्राह्मण ने इन तीनों वेदों का अध्ययन किया है वह त्रिवेदी कहलाता है। जो इन तीनों वेदों से प्राप्त ज्ञान के प्रति आसक्त रहता है, इसका समाज में आदर होता है। दुर्भाग्य वश वेदों के ऐसे अनेक पण्डित हैं जो उनके अध्ययन के चरम लक्ष्य को नहीं समझते। इसीलिए कृष्ण अपने को त्रिवेदियों के लिए परम लक्ष्य घोषित करते हैं। वास्तविक त्रिवेदी भगवान के चरण कमलों की शरण ग्रहण करते हैं और भगवान को प्रसन्न करने के लिए उनकी शुद्ध भक्ति करते हैं। भक्ति का सूत्रपात हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन तथा साथ-साथ कृष्ण को वास्तव में समझने के प्रयास से होता है। दुर्भाग्यवश जो लोग वेदों के नाम मात्र के छात्र हैं वे इन्द्र तथा चन्द्र जैसे विभिन्न देवों को आहुति प्रदान करने में रुचि लेते हैं। ऐसे प्रयत्न से विभिन्न देवों के उपासक निश्चित रूप से प्रकृति के निम्न गुणों के कल्मष से शुद्ध हो जाते हैं। फलस्वरूप वे उच्चतर लोकों, यथा महर्लोक, जनलोक, तपलोक आदि को प्राप्त होते हैं। एक बार इन उच्च लोकों में पहुँच कर वहाँ इस लोक की तुलना में लाखों गुणा अच्छी तरह इन्द्रियों की तुष्टि की जा सकती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. त्रै-विद्याः–तीन वेदों के ज्ञाता; माम्–मुझको; सोम-पाः–सोम रसपान करने वाले; पूत–पवित्र; पापाः–पापों का; यज्ञैः–यज्ञों के साथ; इष्ट्वा–पूजा करके; स्वः-गतिम्–स्वर्ग की प्राप्ति के लिए; पार्थयन्ते–प्रार्थना करते हैं; ते–वे; पुण्यम्–पवित्र; आसाद्य–प्राप्त करके; सुर-इन्द्र–इन्द्र के; लोकम्–लोक को; अश्नन्ति–भोग करते हैं; दिव्यान्–दैवी; दिवि–स्वर्ग में; देव-भोगान्–देवताओं के आनन्द को।

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