श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 756

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-27


रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचि: ।
हर्षशोकान्वित: कर्ता राजस: परकीर्तित: ॥27॥[1]

भावार्थ

जो कर्ता कर्म कर्म-फल के प्रति आसक्त होकर फलों का भोग करना चाहता है तथा जो लोभी, सदैव ईर्ष्यालु, अपवित्र और सुख-दुख से विचलित होने वाला है, वह राजसी कहा जाता है।

तात्पर्य

मनुष्य सदैव किसी कार्य के प्रति या फल के प्रति इसलिए अत्यधिक आसक्त रहता है, क्योंकि वह भौतिक पदार्थों, घर-बार, पत्नी तथा पुत्र के प्रति अत्यधिक अनुरक्त होता है। ऐसा व्यक्ति जीवन में ऊपर उठने की आकांक्षा नहीं रखता। वह इस संसार को यथासम्भव आरामदेह बनाने में ही व्यस्त रहता है। सामान्यतः वह अत्यन्त लोभी होता है और सोचता है कि उसके द्वारा प्राप्त की गई प्रत्येक वस्तु स्थायी है और कभी नष्ट नहीं होगी। ऐसा व्यक्ति अन्यों से ईर्ष्‍या करता है और इन्द्रियतृप्ति के लिए कोई भी अनुचित कार्य कर सकता है। अतएव ऐसा व्यक्ति अपवित्र होता है और वह इसकी चिन्ता नहीं करता कि उसकी कमाई शुद्ध है या अशुद्ध। यदि उसका कार्य सफल हो रजोगुण कर्ता ऐसा ही होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रागी= अत्यधिक आसक्त; कर्म-फल= कर्म के फल की; प्रेप्सुः= इच्छा करते हुए; लुब्ध= लालची; हिसा-आत्मकः= सदैव ईर्ष्‍यालु; अशुचिः= अपवित्र; हर्ष-शोक-अन्वितः= हर्ष तथा शोक से युक्त; कर्ता= ऐसा कर्ता; राजसः= रजोगुणी; परिकीर्तितः= घोषित किया जाता है।

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