श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 382

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय 9 : श्लोक-2

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।[1]

भावार्थ

यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है। यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धान्त है। यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है।

तात्पर्य

भगवद्गीता का यह अध्याय विद्याओं का राजा (राजविद्या) कहलाता है, क्योंकि यह पूर्ववर्ती व्याख्यायित समस्त सिद्धान्तों एवं दर्शनों का सार है। भारत के प्रमुख दार्शनिक गौतम, कणाद, कपिल, याज्ञवल्क्य, शाण्डिल्य तथा वैश्वानर हैं। सबसे अन्त में व्यासदेव आते हैं, जो वेदान्तसूत्र के लेखक हैं। अतः दर्शन या दिव्य ज्ञान के क्षेत्र में किसी प्रकार का अभाव नहीं है। अब भगवान कहते हैं कि यह नवम अध्याय ऐसे समस्त ज्ञान का राजा है, यह वेदाध्ययन से प्राप ज्ञान एवं विभिन्न दर्शनों का सार है। यह गुह्यतम है, क्योंकि गुह्य या दिव्यज्ञान में आत्मा तथा शरीर के अन्तर को जाना जाता है। समस्त गुह्यज्ञान के इस राजा (राजविद्या) की पराकाष्टा है, भक्तियोग।

सामान्यतया लोगों को इस गुह्यज्ञान की शिक्षा नहीं मिलती। उन्हें बाह्य शिक्षा दी जाती है। जहाँ तक सामान्य शिक्षा का सम्बन्ध है उसमें राजनीति, समाजशास्त्र, भौतिकी, रसायनशास्त्र, गणित, ज्योतिर्विज्ञान, इंजीनियरी आदि में मनुष्य व्यस्त रहते हैं। विश्वभर में ज्ञान के अनेक विभाग हैं और अनेक बड़े-बड़े विश्वविद्यालय हैं, किन्तु दुर्भाग्यवश कोई ऐसा विश्वविद्यालय या शैक्षिक संस्थान नहीं है, जहाँ आत्म-विद्या की शिक्षा दी जाती हो। फिर भी आत्मा शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है, आत्मा के बिना शरीर महत्त्वहीन है। तो भी लोग आत्मा की चिन्ता न करके जीवन की शारीरिक आवश्यकताओं को अधिक महत्त्व प्रदान करते हैं।

भगवद्गीता में द्वितीय अध्याय से ही आत्मा की महत्ता पर बल दिया गया है। प्रारम्भ में ही भगवान कहते हैं कि यह शरीर नश्वर है और आत्मा अविनश्वर। (अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः)। यही ज्ञान का गुह्य अंश है- केवल यह जाना लेना कि यह आत्मा शरीर से भिन्न है, यह निर्विकार, अविनाशी और नित्य है। इससे आत्मा के विषय में कोई सकारात्मक सूचना प्राप्त नहीं हो पाती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. राज-विद्या – विद्याओं का राजा; राज-गुह्यम् – गोपनीय ज्ञान का राजा; पवित्रम् – शुद्धतम; इदम् – यह; उत्तमम् – दिव्य; प्रत्यक्ष – प्रत्यक्ष अनुभव से; अवगमम् – समझा गया; धर्म्यम् – धर्म; सु-सुखम् – अत्यन्त सुखी; कर्तुम् – सम्पन्न करने में; अव्ययम् – अविनाशी।

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