श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-5
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः। भावार्थ तात्पर्य अर्जुन कृष्ण के विश्वरूप का दर्शनाभिलाषी था, दिव्य होकर भी दृश्य जगत के लाभार्थ प्रकट होता है। फलतः वह प्रकृति के अस्थाई काल द्वारा प्रभावित है। जिस प्रकार प्रकृति (माया) प्रकट-अप्रकट है, उसी प्रकार कृष्ण का यह विश्वरूप भी प्रकट तथा अप्रकट होता रहता है। यह कृष्ण रूपों की भाँति वैकुण्ठ में नित्य नहीं रहता। जहाँ तक भक्त की बात है, वह विश्व रूप देखने के लिए तनिक भी इच्छुक नहीं रहता, लेकिन चूँकि अर्जुन कृष्ण को इस रूप में देखना चाहता था, अतः वे यह रूप प्रकट करते हैं। सामान्य व्यक्ति इस रूप को नहीं देख सकता। श्रीकृष्ण द्वारा शक्ति प्रदान किये जाने पर ही इसके दर्शन हो सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीभगवान् उवाच -भगवान् ने कहा; पश्य-देखो; मे-मेरा; पार्थ-पृथा पुत्र; रूपाणि- रूप; शतशः- सैकड़ों; अथ- भी; सहस्रशः- हजारों; नाना-विधानि- नाना रूप वाले; दिव्यानि-दिव्य; नाना-नाना प्रकार के; वर्ण-रंग; आकृतीनि-रूप; च-भी।
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