श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 230

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
अध्याय 5 : श्लोक-1

अर्जुन उवाच
सन्न्यासं कर्म णां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम॥[1]

भावार्थ

अर्जुन ने कहा– हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं। क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएँगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है?

तात्पर्य

भगवद्गीता के इस पंचम अध्याय में भगवान बताते हैं कि भक्तिपूर्वक किया गया कर्म शुष्क चिन्तन से श्रेष्ठ है। भक्ति-पथ अधिक सुगम है, क्योंकि दिव्यस्वरूपा भक्ति मनुष्य को कर्मबन्धन से मुक्त करती है। द्वितीय अध्याय में आत्मा तथा उसके शरीर बन्धन का सामान्य ज्ञान बतलाया गया है। उसी में बुद्धियोग अर्थात भक्ति द्वारा इस भौतिक बन्धन से निकलने का भी वर्णन हुआ है। तृतीय अध्याय में यह बताया गया है कि ज्ञानी को कोई कार्य नहीं करने पड़ते। चतुर्थ अध्याय में भगवान ने अर्जुन को बताया है कि सारे यज्ञों का पर्यवसान ज्ञान में होता है, किन्तु चतुर्थ अध्याय के अन्त में भगवान ने अर्जुन को सलाह दी कि वह पूर्णज्ञान से युक्त होकर, उठ करके युद्ध करे। अतः इस प्रकार एक ही साथ भक्तिमय कर्म तथा ज्ञानयुक्त-अकर्म की महत्ता पर बल देते हुए कृष्ण ने अर्जुन के संकल्प को भ्रमित कर दिया है। अर्जुन यह समझता है कि ज्ञानमय संन्यास का अर्थ है– इन्द्रियकार्यों के रूप में समस्त प्रकार के कार्यकलापों का परित्याग। किन्तु यदि भक्तियोग में कोई कर्म करता है तो फिर कर्म का किस तरह त्याग हुआ? दूसरे शब्दों में, वह यह सोचता है कि ज्ञानमाय संन्यास को सभी प्रकार के कार्यों से मुक्त होना चाहिए क्योंकि उसे कर्म तथा ज्ञान असंगत से लगते हैं। ऐसा लगता है कि वह नहीं समझ पाया कि ज्ञान के साथ किया गया कर्म बन्धनकारी न होने के कारण अकर्म के ही तुल्य है। अतएव वह पूछता है कि वह सब प्रकार से कर्म त्याग दे या पूर्णज्ञान से युक्त होकर कर्म करे ?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; संन्यासम् – संन्यास; कर्मणाम् – सम्पूर्ण कर्मों के; कृष्ण – हे कृष्ण; पुनः – फिर; योगम् – भक्ति; शंससि – प्रशंसा करते हो; यत् – जो; श्रेयः – अधिक लाभप्रद है; एतयोः – इन दोनों में से; एकम् – एक; तत् – वह; मे – मेरे लिए; ब्रूहि – कहिये; सु-निश्चितम् – निश्चित रूप से।

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