श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 100

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥[1]

भावार्थ

भक्ति में संलग्न मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे तथा बुरे कार्यों से अपने को मुक्त कर लेता है। अतः योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य-कौशल यही है।

तात्पर्य

जीवात्मा अनादि काल से अपने अच्छे तथा बुरे कर्म के फलों को संचित करता रहा है। फलतः वह निरन्तर अपने स्वरूप से अनभिज्ञ बना रहा है। इस अज्ञान को भगवद्गीता के उपदेश से दूर किया जा सकता है। यह हमें पूर्ण रूप में भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में जाने तथा जन्म-जन्मान्तर कर्म-फल की श्रृंखला का शिकार बनने से मुक्त होने का उपदेश देती है, अतः अर्जुन को कृष्णभावनामृत में कार्य करने के लिए कहा गया है क्योंकि कर्मफल के शुद्ध होने की यही प्रक्रिया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बुद्धि-युक्तः – भक्ति में लगा रहने वाला; जहाति – मुक्त हो सकता है; इह – इस जीवन में; उभे – दोनों; सुकृत-दुष्कृते – अच्छे तथा बुरे फल; तस्मात् – अतः; योगाय – भक्ति के लिए; युज्यस्व – इस तरह लग जाओ; योगः – कृष्णभावनामृत; कर्मसु – समस्त कार्यों में; कौशलम् – कुशलता, कला।

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