श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-11-12
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता: ।
उनका विश्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है। इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है। वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं। आसुरी लोग मानते हैं कि इन्द्रियों का भोग ही जीवन का चरमलक्ष्य है और वे आमरण इसी विचारधारा को धारण किये रहते हैं। वे मृत्यु के बाद जीवन में विश्वास नहीं करते। वे यह नहीं मानते कि मनुष्य को इस जगत् में अपने कर्म के अनुसार विविध प्रकार के शरीर धारण करने पड़ते हैं। जीवन के लिए उनकी योजनाओं का अन्त नहीं होता और वे एक के बाद एक योजना बनाते रहते हैं जो कभी समाप्त नहीं होतीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चिन्ताम= भय तथा चिन्ताओं का; अपरिमेयाम्= अपार; च= तथा; प्रलय-अन्ताम्= मरणकाल तक; उपाश्रिताः= शरणागत; काम-उपभोग= इन्द्रियतृप्ति; परमाः= जीवन का परम लक्ष्य; एतावत्= इतना; इति= इस प्रकार; निश्चिताः= निश्चित करके; आशा-पाशा= आशा रूप बन्धन; शतैः= सैकड़ों के द्वारा; बद्धाः= बँधे हुए; काम= काम; क्रोध= तथा क्रोध में; परायणाः= सदैव स्थित; ईहन्ते= इच्छा करते हैं; काम= काम; भोग= इन्द्रियभोग; अर्थम्= के निमित्त; अन्यायेन= अवैध रूप से; अर्थ= धन का; संञ्चयान्= संग्रह।
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