श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 678

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-8


असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥8॥[1]

भावार्थ

वे कहते हैं कि यह जगत मिथ्या है, इसका कोई आधार नहीं है और इसका नियमन किसी ईश्वर द्वारा नहीं होता। उनका कहना है कि यह कामेच्छा से उत्पन्न होता है और काम के अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं है।

तात्पर्य

आसुरी लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं कि यह जगत् मायाजाल है। इसका न कोई कारण है, न कार्य, न नियामक, न कोई प्रयोजन-हर वस्तु मिथ्या है। उनका कहना है कि यह दृश्य जगत् आकस्मिक भौतिक क्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं के कारण है। वे यह नहीं सोचते कि ईश्वर ने किसी प्रयोजन से इस संसार की रचना की है। उनका अपना सिद्धान्त है कि यह संसार अपने आप उत्पन्न हुआ है और यह विश्वास करने का कोई कारण नहीं कि इसके पीछे किसी ईश्वर का हाथ है। उनके लिए आत्मा तथा पदार्थ में कोई अन्तर नहीं होता और वे परम आत्मा को स्वीकार नहीं करते। उनके लिए हर वस्तु पदार्थ मात्र है और यह पूरा जगत् मानो अज्ञान का पिण्ड हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. असत्यम्= मिथ्या; अप्रष्ठिम्= आधाररहित; ते= वे; जगत्= दृश्य जगत्; आहुः= कहते हैं; अनीश्वरम्= बिना नियामक के; अपरस्पर= बिना कारण के; सम्भूतम्= उत्पन्न; किम्-अन्यत्= अन्य कोई कारण नहीं है; काम-हैतुकम्= केवल काम के कारण।

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