श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 561

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-5


ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै: ॥5॥[1]

भावार्थ

विभिन्न वैदिक ग्रंथों में विभिन्न ऋषियों ने कार्यकलापों के क्षेत्र तथा उन कार्यकलापों के ज्ञाता के ज्ञान का वर्णन किया है। इसे विशेष रूप से वेदान्तसूत्र में कार्यकारण के समस्त तर्क समेत प्रस्तुत किया गया है।

तात्पर्य

इस ज्ञान की व्याख्या करने में भगवान कृष्ण सर्वोच्च प्रमाण हैं। फिर भी विद्वान तथा प्रामाणिक लोग सदैव पूर्ववर्ती आचार्यों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। कृष्ण आत्मा तथा परमात्मा की द्वैतता तथा अद्वैतता सम्बन्धी इस अतीव विवादपूर्ण विषय की व्याख्या वेदान्त नामक शास्त्र का उल्लेख करते हुए कर रहे हैं, जिसे प्रमाण माना जाता है। सर्वप्रथम वे कहते हैं ‘‘यह विभिन्न ऋषियों के मतानुसार है।’’ जिसे प्रमाण माना जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋषिभिः=बुद्धिमान ऋषियों द्वारा; बहुधा=अनेक प्रकार से; गीतम्=वर्णित; छन्दोभिः=वैदिक मन्त्रों द्वारा; विविधैः=नाना प्रकार के; पृथक्=भिन्न=भिन्न; ब्रह्म=सूत्र=वेदान्त के; पदैः=नीतिवचनों द्वारा; च=भी; एव=निश्चित रूप से; हेतु=मद्भिः=कार्य=कारण से; विनिश्चितैः=निश्चित।

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