श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 284

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-27

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥[1]

भावार्थ

जिस योगी का मन मुझ में स्थिर रहता है, वह निश्चय ही दिव्यसुख की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है। वह रजोगुण से परे हो जाता है, वह परमात्मा के साथ अपनी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कर्मों के फल से निवृत्त हो जाता है।

तात्पर्य

ब्रह्मभूत वह अवस्था है जिसमें भौतिक कल्मष से मुक्त होकर भगवान की दिव्य सेवा में स्थित हुआ जाता है। मद्भक्तिं लभते पराम् [2] जब तक मनुष्य का मन भगवान् के चरणकमलों में स्थिर नहीं हो जाता तब तक कोई ब्रह्मरूप में नहीं रह सकता। स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोः। भगवान् की दिव्य प्रेमभक्ति में निरन्तर प्रवृत्त रहना या कृष्णभावनामृत में रहना वस्तुतः रजोगुण तथा भौतिक कल्मष से मुक्त होना है।

अध्याय 6 : श्लोक-28

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥[3]

भावार्थ

इस प्रकार योगाभ्यास में निरन्तर लगा रहकर आत्मसंयमी योगी समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है और भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में परमसुख प्राप्त करता है।

तात्पर्य

आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है – भगवान के सम्बन्ध में अपनी स्वाभाविक स्थिति को जानना। जीव (आत्मा) भगवान का अंश है और उसकी स्थिति भगवान की दिव्य सेवा करते रहना है। ब्रह्म के साथ यह दिव्य सान्निध्य ही ब्रह्म-संस्पर्श कहलाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रशान्त – कृष्ण के चरणकमलों में स्थित; मनसम् – जिसका मन; हि – निश्चय ही; एनम् – यह; योगिनम् – योगी; सुखम् – सुख; उत्तमम् – सर्वोच्च; उपैति – प्राप्त करता है; शान्त-रजसम् – जिसकी कामेच्छा शान्त हो चुकी है; ब्रह्म-भूतम् – परमात्मा के साथ अपनी पहचान द्वारा मुक्ति; अकल्मषम् – समस्त पूर्व पापकर्मों से मुक्त।
  2. भगवद्गीता 18.54
  3. युञ्जन् – योगाभ्यास में प्रवृत्त होना; एवम् – इस प्रकार; सदा – सदैव; आत्मानम् – स्व, आत्मा को; योगी – योगी जो परमात्मा के सम्पर्क में रहता है; विगत – मुक्त; कल्मषः – सारे भौतिक दूषण से; सुखेन – दिव्यसुख से; ब्रह्म-संस्पर्शम् – ब्रह्म के सान्निध्य में रहकर; अत्यन्तम् – सर्वोच्च; सुखम् – सुख को; अश्नुते – प्राप्त करता है।

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