श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 595

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-27


यावत्सञ्जयते किंञ्चित्सत्त्वं स्थावरजंगमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥27॥[1]

भावार्थ

हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ! यह जान लो कि चर तथा अचर जो भी तुम्हें अस्तित्व में दीख रहा है, वह कर्मक्षेत्र तथा क्षेत्र के ज्ञाता का संयोग मात्र है।

तात्पर्य

इस श्लोक में ब्रह्माण्ड की सृष्टि के भी पूर्व से अस्तित्व में रहने वाली प्रकृति तथा जीव दोनों की व्याख्या की गई है। जो कुछ भी उत्पन्न किया जाता है, वह जीव तथा प्रकृति का संयोग मात्र होता है। वृक्ष, पर्वत आदि ऐसी अनेक अभिव्यक्तियाँ हैं, जो गतिशील नहीं हैं। इनके साथ ही ऐसी अनेक वस्तुएँ हैं, जो गतिशील हैं और ये सब भौतिक प्रकृति तथा परा प्रकृति अर्थात् जीव के संयोग मात्र हैं। परा प्रकृति, जीव के स्पर्श के बिना कुछ भी उत्पन्न नहीं हो सकता। भौतिक प्रकृति तथा आध्यात्मिक प्रकृति का सम्बन्ध निरन्तर चल रहा है और यह संयोग परमेश्वर द्वारा सम्पन्न कराया जाता है। अतएव वे ही परा तथा अपरा प्रकृतियों के नियामक हैं। अपरा प्रकृति उनके द्वारा सृष्ट है और परा प्रकृति उस अपरा प्रकृति में रखी जाती है। इस प्रकार सारे कार्य तथा अभिव्यक्तियाँ घटित होती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यावत्= जो भी; सञ्जायते= उत्पन्न होता है; किञ्चित्= कुछ भी; सत्त्वम्= अस्तित्व; स्थावर= अचर; जंगमम्= चर; क्षेत्र= शरीर का; क्षेत्र-ज्ञ= तथा शरीर के ज्ञाता के; संयोगात् = संयोग (जुड़ने) से; तत् विद्धि= तुम उसे जानो; भरत- ऋषभ= हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ।

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