श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 777

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-47


श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥47॥[1]

भावार्थ

अपने वृत्तिपरक कार्य को करना, चाहे वह कितना ही त्रुटिपूर्ण ढंग से क्यों न किया जाय, अन्य किसी के कार्य को स्वीकार करने और अच्छी प्रकार करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वभाव के अनुसार निर्दिष्ट कर्म कभी भी पाप से प्रभावित नहीं होते।

तात्पर्य

भगवद्गीता में मनुष्य के वृत्तिपरक कार्य (स्वधर्म) का निर्देश है। जैसा कि पूर्ववर्ती श्लोकों में वर्णन हुआ है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के कर्तव्य उनके विशेष प्राकृतिक गुणों (स्वभाव) के द्वारा निर्दिष्ट होते हैं। किसी को दूसरे के कार्य का अनुकरण नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति स्वभाव से शूद्र के द्वारा किये जाने वाले कर्म के प्रति आकृष्ट हो, उसे अपने आपको झूठे ही ब्राह्मण नहीं कहना चाहिए, भले ही वह ब्राह्मण कुल में क्यों न उत्पन्न हुआ हो। इस तरह प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि अपने स्वभाव अनुसार कार्य करे; कोई भी कर्म निकृष्ट (गर्हित) नहीं है, यदि वह परमेश्वर की सेवा के लिए किया जाय। ब्राह्मण का वृत्तिपरक कार्य निश्चित रूप से सात्त्विक है, लेकिन यदि कोई मनुष्य स्वभाव से सात्त्विक नहीं है, तो उसे ब्राह्मण के वृत्तिपरक कार्य (धर्म) का अनुकरण नहीं करना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रेयान्= श्रेष्ठ; स्व= धर्मः= अपना वृत्तिपरक कार्यः विगुणः= भली-भाँति सम्पन्न न होकर; परधर्मात्= दूसरे के वृत्तिपरक कार्य से; सु-अनुष्ठितात्= भलीभाँति किया गया; स्वभाव-नियतम्= स्वभाव के अनुसार संस्तुत; कर्म= कर्म; कुर्वन्= करने से; न= कभी नहीं; आन्नोति= प्राप्त करता है; किल्बिषम्= पापों का।

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