श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 336

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-20

कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया॥[1]

भावार्थ

जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं।

तात्पर्य

जो समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो चुके हैं, वे भगवान की शरण ग्रहण करते हैं और उनकी भक्ति में तत्पर होते हैं। जब तक भौतिक कल्मष धुल नहीं जाता, तब तक वे स्वभावतः अभक्त रहते हैं। किन्तु जो भौतिक इच्छाओं के होते हुए भी भगवान की ओर उन्मुख होते हैं, वे बहिरंगा द्वारा आकृष्ट नहीं होते।

चूँकि वे सही उद्देश्य की ओर अग्रसर होते हैं, अतः वे शीघ्र ही सारी भौतिक कामेच्छाओं से मुक्त हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि मनुष्य को चाहिए कि स्वयं को वासुदेव के प्रति समर्पित करे और उनकी पूजा करे, चाहे वह भौतिक इच्छाओं से रहित हो या भौतिक इच्छाओं से पूरित हो या भौतिक कल्मष से मुक्ति चाहता हो। जैसा कि भागवत में[2] कहा गया है –

अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम्॥

जो अल्पज्ञ हैं और जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक चेतना खो दी है, वे भौतिक इच्छाओं की अविलम्ब पूर्ति के लिए देवताओं की शरण में जाते हैं। सामान्यतः ऐसे लोग भगवान् की शरण में नहीं जाते क्योंकि वे निम्नतर गुणों वाले (रजो तथा तमोगुणी) होते हैं, अतः वे विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं। वे पूजा के विधि-विधानों का पालन करने में ही प्रसन्न रहते हैं। देवताओं के पूजक छोटी-छोटी इच्छाओं के द्वारा प्रेरित होते हैं और यह नहीं जानते कि परमलक्ष्य तक किस प्रकार पहुँचा जाये। किन्तु भगवद्भक्त कभी भी पथभ्रष्ट नहीं होता। चूँकि वैदिक साहित्य में विभिन्न उद्देश्यों के लिए भिन्न-भिन्न देवताओं के पूजन का विधान है, अतः जो भगवद्भक्त नहीं है वे सोचते हैं कि देवता कुछ कार्यों के लिए भगवान् से श्रेष्ठ हैं। किन्तु शुद्धभक्त जानता है कि भगवान कृष्ण ही सबके स्वामी हैं। चैतन्य चरितामृत में[3] कहा गया है– एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य– केवल भगवान् कृष्ण ही स्वामी हैं और अन्य सब दास हैं। फलतः शुद्धभक्त कभी भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए देवताओं के निकट नहीं जाता। वह तो परमेश्वर पर निर्भर रहता है और वे जो कुछ देते हैं, उसी में संतुष्ट रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कामैः – इच्छाओं द्वारा; तैः तैः – उन उन; हृत – विहीन; ज्ञानाः – ज्ञान से; प्रपद्यन्ते – शरण लेते हैं; अन्य – अन्य; देवताः – देवताओं की; तम् तम् – उस उस; नियमम् – विधान का; आस्थाय – पालन करते हुए; प्रकृत्या – स्वभाव से; नियताः – वश में हुए; स्वया – अपने आप।
  2. भागवत 2.3.10
  3. आदि 5.142

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