श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 296

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-40

श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥[1]

भावार्थ

भगवान ने कहा– हे पृथापुत्र! कल्याण-कार्यों में निरत योगी का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है। हे मित्र! भलाई करने वाला कभी बुरे से पराजित नहीं होता।

तात्पर्य

श्रीमद्भागवत में[2] श्री नारद मुनि व्यासदेव को इस प्रकार उपदेश देते हैं –

त्यक्त्वा स्वधर्म चरणाम्भुजं हरेर्भजन्नपक्कोऽथ पतेत्ततो यदि।
यत्र क्व वाभद्रमभूदमुष्य किं को वार्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः॥

“यदि कोई समस्त भौतिक आशाओं को त्याग कर भगवान की शरण में जाता है तो इसमें न तो कोई क्षति होती है और न पतन। दूसरी ओर अभक्त जन अपने-अपने व्यवसाओं में लगे रह सकते हैं फिर भी कुछ प्राप्त नहीं कर पाते।” भौतिक लाभ के लिए अनेक शास्त्रीय तथा लौकिक कार्य हैं। जीवन में आध्यात्मिक उन्नति अर्थात कृष्णभावनामृत के लिए योगी को समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग करना होता है। कोई यह तर्क कर सकता है कि यदि कृष्णभावनामृत पूर्ण हो जाय तो इससे सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त हो सकती है, किन्तु यदि यह सिद्धि प्राप्त न हो पाई तो भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से मनुष्य को क्षति पहुँचती है। शास्त्रों का आदेश है कि यदि कोई स्वधर्म का आचरण नहीं करता तो उसे पापफल भोगना पड़ता है, अतः जो दिव्य कार्यों को ठीक से नहीं कर पाता उसे फल भोगना होता है। भागवत पुराण आश्वस्त करता है कि असफल योगी को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। भले ही उसे ठीक से स्वधर्माचरण न करने का फल भोगना पड़े तो भी वह घाटे में नहीं रहता क्योंकि शुभ कृष्णभावनामृत कभी विस्मृत नहीं होता। जो इस प्रकार में लगा रहता है वह अगले जन्म में निम्नयोनी में भी जन्म लेकर पहले की भाँति भक्ति करता है। दूसरी ओर, जो केवल नियत कार्यों को दृढ़तापूर्वक करता है, किन्तु यदि उसमें कृष्णभावनामृत का अभाव है तो आवश्यक नहीं कि उसे शुभ फल प्राप्त हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; पार्थ – हे पृथापुत्र; न एव – कभी ऐसा नहीं है; इह – इस संसार में; न – कभी नहीं; अमुत्र - अगले जन्म में; विनाशः – नाश; तस्य – उसका; विद्यते – होता है; न – कभी नहीं; हि – निश्चय ही; कल्याण-कृत् – शुभ कार्यों में लगा हुआ; कश्चित – कोई भी; दुर्गतिम् – पतन को; तात – हे मेरे मित्र; गच्छति – जाता है।
  2. श्रीमद्भागवत 1.5.17

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