श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 118

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-67-68

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥[1]

भावार्थ

जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचण्ड वायु दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार विचरणशील इन्द्रियों में से कोई एक जिस पर मन निरन्तर लगा रहता है, मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।

तात्पर्य

यदि समस्त इन्द्रियाँ भगवान् की सेवा में न लगी रहें और यदि इनमें से एक भी अपनी तृप्ति में लगी रहती है, तो वह भक्त को दिव्य प्रगति-पथ से विपथ कर सकती है। जैसा कि महाराज अम्बरीष के जीवन में बताया गया है, समस्त इन्द्रियों को कृष्णभावनामृत में लगा रहना चाहिए क्योंकि मन को वश में करने की यही सही एवं सरल विधि है।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश: ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥[2]

भावार्थ

अत: हे महाबाहु! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ अपने- अपने विषयों से सब प्रकार से विरत होकर उसके वश में है, उसी की बुद्धि निस्सन्देह स्थिर है।

तात्पर्य

कृष्णभावानामृत के द्वारा या सारी इन्द्रियों को भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगाकर इन्द्रियतृप्ति बलवती शक्तियों को दमित किया जाता है। जिस प्रकार शत्रुओं का दमन श्रेष्ठ सेना द्वारा किया जाता जाता है उसी प्रकार इंद्रियों का दमन किसी मानवीय प्रसार के द्वारा नही, अपितु उन्हें भगवान की सेवा में लगाये रख कर किया जा सकता है। जो व्यक्ति यह हृदयंगम कर लेता है कि कृष्णभावनामृत के द्वारा बुद्धि स्थिर होती है और इस कला का आरम्भ प्रामाणिक गुरु के पथ-प्रदर्शन में करता है, वह साधक अथवा मोक्ष अधिकारी कहलाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इन्द्रियाणाम् – इन्द्रियों के; हि – निश्चय ही; चरताम् – विचरण करते हुए; यत् – जिसके साथ; मनः – मन; अनुविधीयते – निरन्तर लगा रहता है; तत् – वह; अस्य – इसकी; हरति – हर लेती है; प्रज्ञाम् – बुद्धि को; वायुः – वायु; नावम् – नाव को; इव – जैसे; अभ्यसि – जल मे।
  2. तस्मात- अत:; यस्य- जिसकी; महा-बाहो- हे महाबाहु; निगृहीतानि -इसी तरह वशीभूत; सर्वश:- सब प्रकार से; इन्द्रियाणि -इन्द्रिय-अर्थेभ्य: इन्द्रियविषयों से; तस्य- उसकी; प्रज्ञा- बुद्धि; प्रतिष्ठिता-स्थिर।

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