श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-14
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: ।
मैं समस्त जीवों के शरीरों में पाचन-अग्नि[2] हूँ और मैं श्वास-प्रश्वास[3] में रह कर चार प्रकार के अन्नों को पचाता हूँ। आर्युवेद शास्त्र के अनुसार आमाशय (पेट) में अग्नि होती है, जो वहाँ पहुँचे भोजन को पचाती है। जब यह अग्नि प्रज्ज्वलित नहीं रहती तो भूख नहीं जगती और जब यह अग्नि ठीक रहती है, तो भूख लगती है। कभी-कभी अग्नि मन्द हो जाती है तो उपचार की आवश्यकता होती है। जो भी हो, यह अग्नि भगवान् का प्रतिनिधि स्वरूप है। वैदिक मन्त्रों से भी[4] पुष्टि होती है कि परमेश्वर या ब्रह्म अग्निरूप में आमाशय के भीतर स्थित हैं और समस्त प्रकार के अन्न को पचाते हैं।[5]चूँकि भगवान सभी प्रकार के अन्नों के पाचन में सहायक होते हैं, अतएव जीव भोजन करने के मामले में स्वतन्त्र नहीं है। जब तक परमेश्वर पाचन में उसकी सहायता नहीं करते, तब तक खाने की कोई सम्भावना नहीं है। इस प्रकार भगवान ही अन्न को उत्पन्न करते और वे ही पचाते हैं और उनकी ही कृपा से हम जीवन का आनन्द उठाते हैं। वेदान्तसूत्र में[6] भी इसकी पुष्टि हुई है। शब्दादिभ्योअन्तः प्रतिष्ठानाच्च- भगवान शब्द के भीतर, शरीर के भीतर, वायु के भीतर तथा यहाँ तक कि पाचन शक्ति के रूप में आमाशय में भी उपस्थित हैं। अन्न चार प्रकार का होता है- कुछ निगले जाते हैं[7], कुछ चबाये जाते हैं[8], कुछ चाटे जाते हैं[9] तथा कुछ चूसे जाते हैं।[10] भगवान सभी प्रकार के अन्नों की पाचक शक्ति हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अहम्= मैं; वैश्वानरः= पाचक= अग्नि के रूप में मेरा पूर्ण अंश; भूत्वा= बन कर; प्राणिनाम्= समस्त जीवों के; देहम्= शरीरों में; आश्रितः= स्थित; प्राण= उच्छ्वास, निश्वास; अपान= श्वास; समायुक्तः= सन्तुलित रखते हुए; पचामि= पचाता हूँ; अन्नम् अन्न को; चतुः-विधम्= चार प्रकार के।
- ↑ वैश्वानर
- ↑ प्राण वायु
- ↑ बृहदारण्यक उपनिषद् 5.9.1
- ↑ अयमाग्निर्वैश्वानरो योअयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते
- ↑ 1.2.27
- ↑ पेय
- ↑ भोज्य
- ↑ लेह्य
- ↑ चोष्य
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