श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 738

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-9


कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
संग त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्त्विको मत: ॥9॥[1]

भावार्थ

हे अर्जुन! जब मनुष्य नियत कर्तव्य को करणीय मान कर करता है और समस्त भौतिक संगति तथा फल की आसक्ति को त्याग देता है, तो उसका त्याग सात्त्विक कहलाता है।

तात्पर्य

नियत कर्म इसी मनोभाव से किया जाना चाहिए। मनुष्य को फल के प्रति अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए, उसे कर्म के गुणों से विलग हो जाना चाहिए। जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में रहकर कारखाने में कार्य करता है, वह न तो कारखाने के कार्य से अपने को जोड़ता है, न ही कारखाने के श्रमिकों से। वह तो मात्र कृष्ण के लिए कार्य करता है। और जब वह इसका फल कृष्ण को अर्पण कर देता है, तो वह दिव्य स्तर पर कार्य करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कार्यम्= करणीय; इति= इस प्रकार; एव= निस्सन्देह; यत्= जो; कर्म= कर्म; नियतम्= निर्दिष्ट; क्रियते= किया जाता है; अर्जुन= हे अर्जुन; संगम्= संगति, संग; त्यक्त्वा= त्याग कर; फलम्= फल; च= भी; एव= निश्चय ही; सः= वह; त्यागः= त्याग; सात्त्विकः= सात्त्विक, सतोगुणी; मतः= मेरे मत से।

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