श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 155/2

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग
अध्याय 3 : श्लोक-28

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥[1]

भावार्थ

हे महाबाहो! भक्तिभावमय कर्म तथा सकाम कर्म के भेद को भलीभाँति जानते हुए जो परम सत्य को जानने वाला है, वह कभी भी अपने आपको इन्द्रियों में तथा इन्द्रियतृप्ति में नहीं लगाता।

तात्पर्य

परम सत्य को जानने वाला भौतिक संगति में अपनी विषम स्थिति को जानता है। वह जानता है कि वह भगवान कृष्ण का अंश है और उसका स्थान इस भौतिक सृष्टि में नहीं होना चाहिए। वह अपने वास्तविक स्वरूप को भगवान के अंश के रूप में जानता है जो सत् चित् आनंद हैं और उसे यह अनुभूति होती रहती है कि ‘‘मैं किसी कारण से देहात्मबुद्धि में फँस चुका हूँ।’’ अपने अस्तित्व की शुद्ध अवस्था में उसे सारे कार्य भगवान कृष्ण की सेवा में नियोजित करने चाहिए। फलतः वह अपने आपको कृष्णभवनामृत के कार्यों में लगाता है और भौतिक इन्द्रियों के कार्यों के प्रति स्वभावतः अनासक्त हो जाता है क्योंकि ये पस्थितिजन्य तथा अस्थायी हैं। वह जानता है कि उसके जीवन की भौतिक दशा भगवान के नियन्त्रण में हे, फलतः वह सभी प्रकार के भौतिक बन्धनों से विचलित नहीं होता क्योंकि वह इन्हें भगवत्कृपा तथा श्रीभगवान्-श्रीमद्भागवत के अनुसार जो व्यक्ति परम सत्य को ब्रह्म, परमात्मा तथा श्रीभगवान्-इन तीन विभिन्न रूपों में जानता है वह तत्त्ववित् कहलाता है, क्योंकि वह परमेश्वर के साथ अपने वास्तविक सम्बन्ध को भी जानता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तत्त्ववित् – परम सत्य को जानने वाला; तु – लेकिन; महाबाहो – हे विशाल भुजाओं वाले; गुण-कर्म – भौतिक प्रभाव के अन्तर्गत कर्म के; विभाग्योः – भेद के; गुणाः – इन्द्रियाँ; गुणेषु – इन्द्रियतृप्ति में; वर्तन्ते – तत्पर रहती हैं; इति – इस प्रकार; मत्वा – मानकर; न – कभी नहीं; सज्जते – आसक्त होता है।

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