श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-73
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई। अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ। जीव जिसका प्रतिनिधित्व अर्जुन कर रहा है, उसका स्वरूप यह है कि वह परमेश्वर के आदेशानुसार कर्म करे। वह आत्मानुशासन (संयम) के लिए बना है। श्रीचैतन्य महाप्रभु का कहना है कि जीव का स्वरूप परमेश्वर के नित्य दास के रूप में है। इस नियम को भूल जाने के कारण जीव प्रकृति द्वारा बद्ध हो जाता है। लेकिन परमेश्वर की सेवा करने से वह ईश्वर का मुक्त दास बनता है। जीव का स्वरूप सेवक के रूप में है। उसे माया या परमेश्वर में से किसी एक की सेवा करनी होती है। यदि वह परमेश्वर की सेवा करता है, तो वह अपनी सामान्य स्थिति में रहता है। लेकिन यदि वह बाह्यशक्ति माया की सेवा करना पसन्द करता है, तो वह निश्चित रूप से बन्धन में पड़ जाता है। इस भौतिक जगत् में जीव मोहवश सेवा कर रहा है। वह काम तथा इच्छाओं से बँधा हुआ है, फिर भी वह अपने को जगत् का स्वामी मानता है। यही मोह कहलाता है, मुक्त होने पर पुरुष को मोह दूर हो जाता है और वह स्वेच्छा से भगवान की इच्छानुसार कर्म करने के लिए परमेश्वर की शरण ग्रहण करता है। जीव को फाँसने का माया का अन्तिम पाश यह धारणा है कि वह ईश्वर है। जीव सोचता है कि अब वह बद्धजीव नहीं रहा, अब तो वह ईश्वर है। वह इतना मूर्ख होता है कि वह यह नहीं सोच पाता कि यदि वह ईश्वर होता तो इतना संशयग्रस्त क्यों रहता। वह इस पर विचार नहीं करता। इसलिए यही माया का अन्तिम पाश होता है। वस्तुतः माया से मुक्त होना भगवान श्रीकृष्ण को समझना है और उसके आदेशानुसार कर्म करने के लिए सहमत होना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्जुनःउवाच= अर्जुन ने कहा; नष्टः= दूर हुआ; मोहः= मोह; स्मृतिः= स्मरण शक्ति; लब्धा= पुनः प्राप्त हुई; त्वत्-प्रसादात्= आपकी कृपा से; मया= मेरे द्वारा; अच्युत= हे अच्युत कृष्ण; स्थितः= स्थित; अस्मि= हूँ; गत= दूर हुए; सन्देहः= सारे संशय; करिष्ये= पूरा करूँगा; वचनम्= आदेश को; तव= तुम्हारे।
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