श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 813

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-72


कच्चिदेतच्छ्र तुं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसंमोह: प्रणष्टस्ते धनंजय ॥72॥[1]

भावार्थ

हे पृथापुत्र! हे धनंजय! क्या तुमने इसे (इस शास्त्र को) एकाग्र चित्त होकर सुना? और क्या अब तुम्हारा अज्ञान तथा मोह दूर हो गया है?

तात्पर्य

भगवान अर्जुन के गुरु का काम कर रहे थे। अतएव यह उनका धर्म था कि अर्जुन से पूछते कि उसने पूरी भगवद्गीता सही ढंग से समझ ली है या नहीं। यदि नहीं समझी है, तो भगवान उसे फिर से किसी अंश विशेष या पूरी भगवद्गीता बताने को तैयार हैं। वस्तुतः जो भी व्यक्ति कृष्ण जैसे प्रामाणिक गुरु या उनके प्रतिनिधि से भगवद्गीता को सुनता है, उसका सारा अज्ञान दूर हो जाता है। भगवद्गीता कोई सामान्य ग्रन्थ नहीं, जिसे किसी कवि या उपन्यासकार ने लिखा हो, इसे साक्षात भगवान ने कहा है। जो भाग्यशाली व्यक्ति इन उपदेशों को कृष्ण से या उनके किसी प्रामाणिक आध्यात्मिक प्रतिनिधि से सुनता है, वही अवश्य ही मुक्त पुरुष बनकर अज्ञान के अंधकार को पार कर लेता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कश्चित्= क्या; एतत्= यह; श्रुतम्= सुना गया; पार्थ= हे पृथापुत्र; त्वया= तुम्हारे द्वारा; एक-अग्रेण= एकाग्र; चेतसा= मन से; कश्चित्= क्या; अज्ञान= अज्ञान का; सम्मोहः= मोह, भ्रम; प्रणष्टः= दूर हो गया; ते= तुम्हारा; धनंजय= हे सम्पत्ति के विजेता (अर्जुन)।

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