श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 290

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-34

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥[1]

भावार्थ

हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है।

तात्पर्य

मन इतना बलवान् तथा दुराग्रही है कि कभी-कभी यह बुद्धि का उल्लंघन कर देता है, यद्यपि उसे बुद्धि के अधीन माना जाता है। इस व्यवहार-जगत में जहाँ मनुष्य को अनेक विरोधी तत्त्वों से संघर्ष करना होता है, उसके लिए मन को वश में कर पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है। कृत्रिम रूप में मनुष्य अपने मित्र तथा शत्रु दोनों के प्रति मानसिक संतुलन स्थापित कर सकता है, किन्तु अंतिम रूप में कोई भी संसारी पुरुष ऐसा नहीं कर पाता, क्योंकि ऐसा कर पाना वेगवान वायु को वश में करने से भी कठिन है। वैदिक साहित्य [2] में कहा गया है –

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव च
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः॥

“प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक शरीर रूपी रथ पर आरूढ है और बुद्धि इसका सारथी है। मन लगाम है और इन्द्रियाँ घोड़े हैं। इस प्रकार मन तथा इन्द्रियों की संगती से यह आत्मा सुख तथा दुःख का भोक्ता है। ऐसा बड़े-बड़े चिन्तकों का कहना है।” यद्यपि बुद्धि को मन का नियन्त्रण करना चाहिए, किन्तु मन इतना प्रबल तथा हठी है कि इसे अपनी बुद्धि से भी जीत पाना कठिन हो जाता है जिस प्रकार कि अच्छी से अच्छी दवा द्वारा कभी-कभी रोग वश में नहीं हो पाता। ऐसे प्रबल मन को योगाभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है, किन्तु ऐसा अभ्यास कर पाना अर्जुन जैसे संसारी व्यक्ति के लिए कभी भी व्यावहारिक नहीं होता। तो फिर आधुनिक मनुष्य के सम्बन्ध में क्या कहा जाय? यहाँ पर प्रयुक्त उपमा अत्यन्त उपयुक्त है– झंझावात को रोक पाना कठिन होता है और उच्छृंखल मन को रोक पाना तो और भी कठिन है। मन को वहस में रखने का सरलतम उपाय, जिसे भगवान् चैतन्य ने सुझाया है, यह है कि समस्त दैन्यता के साथ मोक्ष ले लिए “हरे कृष्ण” महामन्त्र का कीर्तन किया जाये। विधि यह है– स वै मनः कृष्ण पदारविन्दयोः – मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन को पूर्णतया कृष्ण में लगाए। तभी मन को विचलित करने के लिए अन्य व्यस्तताएँ शेष नहीं रह जाएँगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चञ्चलम् – चंचल; हि – निश्चय ही; मनः – मन; कृष्ण – हे कृष्ण; प्रमाथि – विचलित करने वाला, क्षुब्ध करने वाला; बल-वत् – बलवान्; दृढम् – दुराग्रही, हठीला; तस्य – उसका; अहम् – मैं; निग्रहम् – वश में करना; मन्ये – सोचता हूँ; वायोः – वायु की; इव – तरह; सु-दुष्करम् – कठिन।
  2. कठोपनिषद 1.3.3-4

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