श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 312

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-4

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥[1]

भावार्थ

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार– ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपर) प्रकृतियाँ हैं।

तात्पर्य

ईश्वर-विज्ञान भगवान की स्वाभाविक स्थिति तथा उनकी विविध शक्तियों का विश्लेषण है। भगवान के विभिन्न पुरुष अवतारों (विस्तारों) की शक्ति को प्रकृति कहा जाता है, जैसा कि सात्वततन्त्र में उल्लेख मिलता है –

विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुः।
एकं तु महतः स्त्रष्टृ द्वितीयं त्वण्डसंस्थितम्।
तृतीयं सर्वभूतस्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते॥

“सृष्टि के लिए [2] का स्वांश तीन विष्णुओं का रूप धारण करता है। पहले महाविष्णु हैं, जो सम्पूर्ण भौतिक शक्ति महत्तत्त्व को उत्पन्न करते हैं। द्वितीय गर्भोदकशायी विष्णु हैं, जो समस्त ब्रह्माण्डों में प्रविष्ट होकर उनमें विविधता उत्पन्न करते हैं। तृतीय क्षीरोदकशायी विष्णु हैं जो समस्त ब्रह्माण्डों में सर्वव्यापी परमात्मा रूप में फैले हुए हैं और परमात्मा कहलाते हैं। वे प्रत्येक परमाणु तक के भीतर उपस्थित हैं। जो भी इस तीनों विष्णु रूपों को जानता है, वह भवबन्धन से मुक्त हो सकता है।”

यह भौतिक जगत भगवान की शक्तियों में से एक का क्षणिक प्राकट्य है। इस जगत् की सारी क्रियाएँ भगवान कृष्ण के इन तीनों विष्णु अंशों द्वारा निर्देशित हैं। ये पुरुष अवतार कहलाते हैं। सामान्य रूप से जो व्यक्ति ईश्वर तत्त्व (कृष्ण) को नहीं जानता, वह यह मान लेता है कि यह संसार जीवों के भोग के लिए है और सारे जीव पुरुष हैं– भौतिक शक्ति के कारण, नियन्ता तथा भोक्ता हैं। भगवद्गीता के अनुसार यह नास्तिक निष्कर्ष झूठा है। प्रस्तुत श्लोक में कृष्ण को इस जगत का आदि कारण माना गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भूमिः – पृथ्वी; आपः – जल; अनलः – अग्नि; वायुः – वायु; खम् – आकाश; मनः – मन; बुद्धिः – बुद्धि; एव – निश्चय ही; च – तथा; अहंकार – अहंकार; इति – इस प्रकार; इयम् – ये सब; मे – मेरी; भिन्ना – पृथक्; प्रकृतिः – शक्तियाँ; अष्टधा – आठ प्रकार की।
  2. कृष्ण

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