श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-8-12
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा , सहिष्णुता, सरलता, प्रामाणिक गुरु के पास जाना, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति, वैराग्य सन्तान, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति, अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव, मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा, जन समूह से बिलगाव, आत्म-साक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारना, तथा परम सत्य की दार्शनिक खोज- इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और इनके अतिरिक्त जो भी है, वह सब अज्ञान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अमानित्वम्=विनम्रता; अदम्भित्वम्=दम्भविहीनता; अहिंसा=अहिंसा; क्षान्तिः=सहनशीलता, सहिष्णुता; आर्जवम्=सरलता; आचार्य-उपासनम्=प्रामाणिक गुरु के पास जाना; शौचम्=पवित्रता; स्थैर्यम्=दृढ़ता; आत्म-विनिग्रहः=आत्म संयम; इन्द्रिय-अर्थेषु=इन्द्रियों के मामले में; वैराग्यम्=वैराग्य; अनहंकारः=मिथ्या अभिमान से रहित; एव=निश्चय ही; च=भी; जन्म=जन्म; मृत्यु=मृत्यु; जरा=बुढ़ापा; व्याधि=तथा रोग का; दुःख=दुख का; दोष=बुराई; अनुदर्शनम्=देखते हुएः असक्तिः=बिना आसक्ति के; अनभिष्वअंगः=बिना संगति के; पुत्र=पुत्र; दार=स्त्री; गृह-आदिषु=घर आदि में; नित्यम्=निरंतर; च=भी; सम-चित्तत्त्वम्=समभाव; ईष्ट=इच्छित; अनिष्ट= अवांछित; उपपत्तिषु=प्राप्त करके; मयि=मुझ में; च=भी; अनन्य-योगेन=अनन्य भक्ति से; भक्तिः=भक्ति; अव्यभिचारिणी=बिना व्यवधान के; विविक्त=एकान्त; देश=स्थानों की; सेवित्वम्=आकांक्षा करते हुए; अरतिः=अनासक्त भाव से; जन-संसदि=सामान्य लोगों को; अध्यात्म=आत्मा सम्बन्धी; ज्ञान=ज्ञान में; नित्यत्वम्=शाश्वतता; तत्त्वज्ञान=सत्य के ज्ञान के; अर्थ=हेतुः दर्शनम्=दर्शनशास्त्र; ज्ञान=ज्ञान में; नित्यत्वम्=शाश्वतता; तत्त्वज्ञानि=सत्य के ज्ञान के; अर्थ=हेतु; दर्शनम्=दर्शनशास्त्र; एतत्=यह सारा; ज्ञानम्=ज्ञान; इति=इस प्रकार; प्रोक्तम्=घोषित; अज्ञानम्=अज्ञान; यत्=जो; अतः=इससे; अन्यथा=अन्य, इतर।
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