श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 524

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-55

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव॥[1]

भावार्थ

हे अर्जुन! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त होकर, मेरी शुद्ध भक्ति में तत्पर रहता है, जो मेरे लिए ही कर्म करता है, जो मुझे ही जीवन-लक्ष्य समझता है और जो प्रत्येक जीव से मैत्रीभाव रखता है, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है।

तात्पर्य
जो कोई चिन्मय व्योम के कृष्णलोक में परम पुरुष को प्राप्त करके भगवान् कृष्ण से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है, उसे स्वयं भगवान् द्वारा बताये गये इस मन्त्र को ग्रहण करना होगा, अतः यह श्लोक भगवद्गीता का सार माना जाता है। भगवद्गीता एक ऐसा ग्रंथ है, जो उन बद्धजीवों की और लक्षित है, जो इस भौतिक संसार में प्रकृति पर प्रभुत्व जताने में लगे हुए हैं और वास्तविक आध्यात्मिक जीवन के बारे में नहीं जानते हैं। भगवद्गीता का उद्देश्य यह दिखाना है कि मनुष्य किस प्रकार अपने आध्यात्मिक अस्तित्व को तथा भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को समझ सकता है तथा उसे यह शिक्षा देना है कि वह भगवद्धाम को कैसे पहुँच सकता है। यह श्लोक उस विधि को स्पष्ट रूप से बताता है, जिससे मनुष्य अपने आध्यात्मिक कार्य में अर्थात् भक्ति में सफलता प्राप्त कर सकता है। भक्तिरसामृत सिन्धु में [2]कहा गया है-

अनासक्तस्य विषयान् यथार्हमुपयुञ्जतः।
निर्बन्धः कृष्णसम्बन्धे युक्तं वैराग्यमुच्यते॥
ऐसा कोई कार्य न करे जो कृष्ण से सम्बन्धित न हो। यह कृष्णकर्म कहलाता है। कोई भले ही कितने कर्म क्यों न करे, किन्तु उसे उनके फल के प्रति आसक्ति नहीं होनी चाहिए। यह फल तो कृष्ण को ही अर्पित किया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यापार में व्यस्त है, तो उसे इस व्यापार को कृष्णभावनामृत में परिणत करने के लिए, कृष्ण को अर्पित करना चाहे, तो वह ऐसा कर सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मत्-कर्म-कृत - मेरा कर्म करने में रत; मत्-परमः - मुझको परम मानते हुए; मत्-भक्तः - मेरी भक्ति में रत; सङग-वर्जितः - सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त; निर्वैरः - किसी से शत्रुरहित; सर्व-भूतेषु - समस्त जीवों में; यः - जो; माम् - मुझको; एति - प्राप्त करता है; पाण्डव - हे पाण्डु के पुत्र
  2. 2.255

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