श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-55
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। भावार्थ तात्पर्य अनासक्तस्य विषयान् यथार्हमुपयुञ्जतः। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मत्-कर्म-कृत - मेरा कर्म करने में रत; मत्-परमः - मुझको परम मानते हुए; मत्-भक्तः - मेरी भक्ति में रत; सङग-वर्जितः - सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त; निर्वैरः - किसी से शत्रुरहित; सर्व-भूतेषु - समस्त जीवों में; यः - जो; माम् - मुझको; एति - प्राप्त करता है; पाण्डव - हे पाण्डु के पुत्र
- ↑ 2.255
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