श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 762

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-33


धृत्या यया धारयते मन:प्राणेन्द्रियक्रिया: ।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृति: सा पार्थ सात्त्विकी ॥33॥[1]

भावार्थ

हे पृथापुत्र! जे अटूट है, जिसे योगाभ्यास द्वारा अचल रहकर धारण किया जाता है और जो इस प्रकार मन, प्राण तथा इन्द्रियों के कार्यकलापों को वश में रखती है, वह धृति सात्त्विक है।

तात्पर्य

योग परमात्मा को जानने का साधन है। जो व्यक्ति मन, प्राण तथा इन्द्रियों को परमात्मा में एकाग्र करके दृढ़तापूर्वक उनमें स्थित रहता है, वही कृष्णभावना में तत्पर होता है। ऐसी धृति सात्त्विक होती है। अव्यभिचारिण्या शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह सूचित करता है कि कृष्णभावनामृत में तत्पर मनुष्य कभी किसी दूसरे कार्य द्वारा विचलित नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धृत्या= संकल्प, धृति द्वारा; यया= जिससे; धारयते= धारण करता है; मनः= मन को; प्राण= प्राण; इन्द्रिय= तथा इन्द्रियों के; क्रियाः= कार्यकलापों को; योगेन= योगाभ्यास द्वारा; अव्यभिचारिण्या= तोडे़ बिना, निरन्तर; धृतिः= धृति; सा= वह; पार्थ= हे पृथापृत्र; सात्त्विकी= सात्त्विक।

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