श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-55
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत: ।
केवल भक्ति से मुझ भगवान को यथारूप में जाना जा सकता है। जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत मं होता है, तो वह वैकुण्ठ जगत् में प्रवेश कर सकता है। भगवान श्रीकृष्ण तथा उनके स्वांशों को न तो मनोधर्म द्वारा जाना जा सकता है, न ही अभक्तगण उन्हें समझ पाते हैं। यदि कोई व्यक्ति भगवान को समझना चाहता है, तो उसे शुद्ध भक्त के पथदर्शन में शुद्ध भक्ति ग्रहण करनी होती है, अन्यथा भगवान सम्बन्धी सत्य (तत्त्व) उससे सदा छिपा रहेगा। जैसा कि भगवद्गीता में[2] कहा जा चुका है- नाहं प्रकाशः सर्वस्य- मैं सबों के समक्ष प्रकाशित नहीं होता। केवल पाण्डित्य या मनोधर्म द्वारा ईश्वर को नहीं समझा जा सकता। कृष्ण को केवल वही समझ पाता है, जो कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में तत्पर रहता है। इसमें विश्वविद्यालय की उपाधियाँ सहायक नहीं होती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भक्त्या= शुद्ध भक्ति से; माम्= मुझको; अभिजानाति= जान सकता है; यावान्= जितना; यः च अस्मि= जैसा मैं हूँ; तत्त्वतः= सत्यतः; ततः= तत्पश्चात्; माम्= मुझको; तत्त्वतः= सत्यतः; ज्ञात्वा= जानकर; विशते= प्रवेश करता है; तत्-अनन्तरम्= तत्पश्चात्।
- ↑ 7.25
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