श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 649

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-10


उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुष: ॥10॥[1]

भावार्थ

मूर्ख न तो समझ पाते हैं कि जीव किस प्रकार अपना शरीर त्याग सकता है, न ही वे समझ पाते हैं कि प्रकृति के गुणों के अधीन वह किस तरह के शरीर का भोग करता है। लेकिन जिसकी आँखें ज्ञान में प्रशिक्षित होती हैं, वह यह सब देख सकता है।

तात्पर्य

ज्ञान-चक्षुषः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। बिना ज्ञान के कोई न तो यह समझ सकता है कि जीव इस शरीर को किस प्रकार त्यागता है, न ही यह कि वह अगले जीवन में कैसा शरीर धारण करने जा रहा है, अथवा यह कि वह विशेष प्रकार के शरीर में क्यों रह रहा है। इसके लिए पर्याप्त ज्ञान की आवश्यकता होती है, जिसे प्रामाणिक गुरु से भगवद्गीता तथा अन्य ऐसे ही ग्रन्थों को सुन कर समझा जा सकता है। जो इन बातों को समझने के लिए प्रशिक्षित है, वह भाग्यशाली है। प्रत्येक जीव किन्हीं परिस्थितियों में शरीर त्यागता है, जीवित रहता है और प्रकृति के अधीन होकर भोग करता है। फलस्वरूप वह इन्द्रियभोग के भ्रम में नाना प्रकार के सुख-दुख सहता रहता है। ऐसे व्यक्ति जो काम तथा इच्छा के कारण निरन्तर मूर्ख बनते रहते हैं, अपने शरीर-परिवर्तन तथा विशेष शरीर में अपने वास को समझने की सारी शक्ति खो बैठते हैं। वे इसे नहीं समझ सकते। किन्तु जिन्हें आध्यात्मिक ज्ञान हो चुका है, वे देखते हैं कि आत्मा शरीर से भिन्न है और यह अपना शरीर बदल कर विभिन्न प्रकार से भोगता रहता है। ऐसे ज्ञान से युक्त व्यक्ति समझ सकता है कि इस संसार में बद्धजीव किस प्रकार कष्ट भोग रहे हैं। अतएव जो लोग कृष्णभावनामृत में अत्यधिक आगे बढ़े हुए हैं, वे इस ज्ञान को सामान्य लोगों तक पहुँचाने में प्रयत्नशील रहते हैं, क्योंकि उनका बद्ध जीवन अत्यन्त कष्टप्रद रहता है। उन्हें इसमें से निकल कर कृष्णभावनाभावित होकर आध्यात्मिक लोक में जाने के लिए अपने को मुक्त करना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उत्क्रामन्तम्= शरीर त्यागते हुए; स्थितम्= शरीरं में रहते हुए; वा अपि= अथवा; भुज्जानम्= भोग करते हुए; वा= अथवा; गुण-अन्वितम्= प्रकृति के गुणों के अधीन; विमूढाः= मूर्ख व्यक्ति; न= कभी नहीं; अनुपश्यन्ति= देख सकते हैं; पश्यन्ति= देख सकते हैं; ज्ञान= चक्षुषः= ज्ञान रूपी आँखों वाले।

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