श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 550

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भक्तियोग
अध्याय 12 : श्लोक-18-19


सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।
सम शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संगविवर्जित:।।18।।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमार्न्म प्रियो नर:।।19।।[1]

भावार्थ

जो मित्रों तथा शत्रुओं के लिए सम्मान है, जो मान तथा अपमान, शीत तथा गर्मी, सुख तथा दुख, यश तथा अपयश में समभाव रखता है, जो दूषित संगति से सदैव मुक्त रहता है, जो सदैव मौन और किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है, जो किसी प्रकार के घर-बार की परवाह नहीं करता, जो ज्ञान में दृढ़ है और जो भक्ति में संलग्न है- ऐसा पुरुष मुझे अत्यन्त प्रिय है।

तात्पर्य

भक्त सदैव कुसंगति से दूर रहता है। मानव समाज का यह स्वभाव है कि कभी किसी की प्रशंसा की जाती है, तो कभी उसकी निंदा की जाती है। लेकिन भक्त कृत्रिम यश तथा अपयश, दुख या सुख से ऊपर उठा हुआ होता है। वह अत्यन्त धैर्यवान् होता है। वह कृष्णकथा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बोलता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सम:=समान: शत्रौ=शत्रु में; च=तथा; मित्रे=मित्र में; च=भी; तथा=उसी प्रकार; मान=सम्मान; अपमानयो:=तथा अपमान में; शीत=जाड़ा; उष्ण=गर्मी; दु;खेषु=तथा दुख में; सम:=समभाव; संग-विवर्जित:=समस्त संगति से मुक्त; तुल्य=समान; निंदा=उपयश; अनिकेत:=बिना घर-बार के स्थिर:=दूढ़: मति:=संकल्प; भक्तिमान्=भक्ति में रत; मे-मेरा; प्रिय:=प्रिय: नर:=मनुष्य।

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