श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 185

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥[1]

भावार्थ

हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ।

तात्पर्य

यहाँ पर सृजामि शब्द महत्त्वपूर्ण है। सृजामि सृष्टि के अर्थ में नहीं प्रयुक्त हो सकता, क्योंकि पिछले श्लोक के अनुसार भगवान के स्वरूप या शरीर की सृष्टि नहीं होती, क्योंकि उनके सारे स्वरूप शाश्वत रूप से विद्यमान रहने वाले हैं। अतः सृजामि का अर्थ है कि भगवान स्वयं यथारूप प्रकट होते हैं। यद्यपि भगवान कार्यक्रमानुसार अर्थात ब्रह्मा के एक दिन में सातवें मनु के 28 वें युग में द्वापर के अन्त में प्रकट होते हैं, किन्तु वे इस समय का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं, क्योंकि वे स्वेच्छा से कर्म करने के लिए स्वतन्त्र हैं। अतः जब भी अधर्म की प्रधानता तथा धर्म का लोप होने लगता है, तो वे स्वेच्छा से प्रकट होते हैं। धर्म के नियम वेदों में दिये हुए हैं और यदि इन नियमों के पालन में कोई त्रुटि आती है तो मनुष्य अधार्मिक हो जाता है। श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि ऐसे नियम भगवान के नियम हैं। केवल भगवान ही किसी धर्म की व्यवस्था कर सकते हैं। वेद भी मूलतः ब्रह्मा के हृदय में से भगवान द्वारा उच्चारित माने जाते हैं। अतः धर्म के नियम भगवान के प्रत्यक्ष आदेश हैं[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यदा यदा – जब भी और जहाँ भी; हि – निश्चय ही; धर्मस्य – धर्म की; ग्लानिः – हानि, पतन; भवति – होती है; भारत – हे भारतवंशी; अभ्युत्थानम् – प्रधानता; अधर्मस्य – अधर्म की; तदा – उस समय; आत्मानम् – अपने को; सृजामि – प्रकट करता हूँ; अहम् – मैं।
  2. (धर्म तु साक्षाद्भगवत्प्रणीतम् )

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