श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 428

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-3


यो मामजमनादिं च वेत्ति लोक महेश्वरम्।
असम्मूढ़ः स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते।।[1]

भावार्थ

जो मुझे अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जानता है, मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है।

तात्पर्य

जैसा कि सातवें अध्याय[2] में कहा गया है– मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये– जो लोग आत्म-साक्षात्कार के पद तक उठने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, वे सामान्य व्यक्ति नहीं हैं, वे उन करोड़ो सामान्य व्यक्तियों से श्रेष्ठ हैं, जिन्हें आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान नहीं होता। किन्तु जो वास्तव में अपनी आध्यात्मिक स्थिति को समझने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, उनमें से श्रेष्ठ वही है, जो यह जान लेता है कि कृष्ण ही भगवान, प्रत्येक वस्तु के स्वामी तथा अजन्मा हैं, वही सबसे अधिक सफल अध्यात्मज्ञानी है। जब वह कृष्ण की परम स्थिति को पूरी तरह समझ लेता है, उसी दशा में वह समस्त पापकर्मों से मुक्त हो पाता है।

यहाँ पर भगवान को अज अर्थात अजन्मा कहा गया है, किन्तु वे द्वितीय अध्याय में वर्णित उन जीवों से भिन्न हैं, जिन्हें अज कहा गया है। भगवान जीवों से भिन्न हैं, क्योंकि जीव भौतिक आसक्तिवश जन्म लेते तथा मरते रहते हैं। बद्धजीव अपना शरीर बदलते रहते हैं, किन्तु भगवान का शरीर परिवर्तनशील नहीं है। यहाँ तक कि जब वे इस लोक में आते हैं तो भी उसी अजन्मा रूप में आते हैं। इसीलिए चौथे अध्याय में कहा गया है कि भगवान अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण अपराशक्ति माया के अधीन नहीं हैं, अपितु पराशक्ति में रहते हैं।

इस श्लोक के वेत्ति लोक महेश्वरम शब्दों से सूचित होता है कि मनुष्य को यह जानना चाहिए कि भगवान कृष्ण ब्रह्माण्ड के सभी लोकों के परम स्वामी हैं। वे सृष्टि के पूर्व थे और अपनी सृष्टि से भिन्न हैं। सारे देवता इसी भौतिक जगत में उत्पन्न हुए, किन्तु कृष्ण अजन्मा हैं, फलतः वे ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे बड़े-बड़े देवताओं से भी भिन्न हैं और चूँकि वे ब्रह्मा, शिव तथा अन्य समस्त देवताओं से स्रष्टा हैं, अतः वे समस्त लोकों के परम पुरुष हैं।

अतएव श्रीकृष्ण उस हर वस्तु से भिन्न हैं, जिसकी सृष्टि हुई है और जो उन्हें इस रूप में जान लेता है, वह तुरन्त ही सारे पापकर्मों से मुक्त हो जाता है। परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को समस्त पापकर्मों से मुक्त होना चाहिए। जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है कि उन्हें केवल भक्ति के द्वारा जाना जा सकता है, किसी अन्य साधन से नहीं। मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण को सामान्य मनुष्य न समझे। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, केवल मुर्ख व्यक्ति ही उन्हें मनुष्य मनाता है। इसे यहाँ भिन्न प्रकार से कहा गया है। जो व्यक्ति मुर्ख नहीं है, जो भगवान के स्वरूप को ठीक से समझ सकता है, वह समस्त पापकर्मों से मुक्त है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यः–जो; माम्–मुझको; अजम्–अजन्मा; अनादिम्–अदिरहित; च–भी; वेत्ति–जानता है; लोक–लोकों का; महा-ईश्वरम्–परम स्वामी; असम्मूढः–मोहरहित; सः–वह; मर्त्येषु–मरणशील लोगों में; सर्व-पापैः–सारे पापकर्मों से; प्रमुच्यते–मुक्त हो जाता है।
  2. 7.3

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