श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 735

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-6


एतान्यपि तु कर्माणि सग्ङंत्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥6॥[1]

भावार्थ

इस सारे कार्यों को किसी प्रकार की आसक्ति या फल की आशा के बिना सम्पन्न करना चाहिए। हे पृथापुत्र! इन्हें कर्तव्य मानकर सम्पन्न किया जाना चाहिए। यही मेरा अन्तिम मत है।

तात्पर्य

यद्यपि सारे यज्ञ शुद्ध करने वाले हैं, लेकिन मनुष्य को ऐसे कार्यों से किसी फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, जीवन में जितने सारे यज्ञ भौतिक उन्नति के लिए हैं, उनका परित्याग करना चाहिए। लेकिन जिन यज्ञों से मनुष्य का अस्तित्व शुद्ध हो और जो आध्यात्मिक स्तर तक उठाने वाले हों, उनको कभी बन्द नहीं करना चाहिए। जिस किसी वस्तु से कृष्णभावनामृत तक पहुँचा जा सके, उसको प्रोत्साहन देना चाहिए। श्रीमद्भागवत में भी यह कहा गया है कि जिस कार्य से भगवद्भक्ति का लाभ हो, उसे स्वीकार करना चाहिए। यही धर्म की सर्वोच्च कसौटी है। भगवद्भक्त को ऐसे किसी भी कर्म, यज्ञ या दान को स्वीकार करना चाहिए, जो भगवद्भक्ति करने में सहायक हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एतानि= ये सब; अपि= निश्चय ही; तु= लेकिन; कर्माणि= कार्य; संगाम्= संगति को; त्यक्त्वा= त्यागकर; फलानि= फलों को; च= भी; कर्तव्यानि= कर्तव्य समझ कर करने चाहिए; इति= इस प्रकार; मे= मेरा; पार्थ= हे पृथापुत्र; निश्चितम्= निश्चित; मतम्= मत; उत्तम्= श्रेष्ठ।

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