श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 675

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-6


द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु ॥6॥[1]

भावार्थ

हे पृथापुत्र! इस संसार में सृजित प्राणी दो प्रकार के हैं- दैवी तथा आसुरी। मैं पहले ही विस्तार से तुम्हें दैवी गुण बतला चुका हूँ। अब मुझसे आसुरी गुणों के विषय में सुनो।

तात्पर्य

अर्जुन को यह कह कर कि वह दैवीगुणों से सम्पन्न होकर जन्मा है, भगवान कृष्ण अब उसे आसुरी गुण बताते हैं। इस संसार में बद्धजीव दो श्रेणियों में बँटे हुए हैं। जो जीव दिव्यगुणों से सम्पन्न होते हैं, वे नियमित जीवन बिताते हैं अर्थात वे शास्त्रों तथा विद्वानों द्वारा बताये गये आदेशों का निर्वाह करते हैं। मनुष्य को चाहिए कि प्रमाणिक शास्त्रों के अनुसार कर्तव्य निभायें, यह प्रकृति दैवी कहलाती है। जो शास्त्रविहित विधानों को नहीं मानता और अपनी सनक के अनुसार कार्य करता रहता है, वह आसुरी कहलाता है। शास्त्र के विधिविधानों के प्रति आज्ञा-भाव ही एक मात्र कसौटी है, अन्य नहीं। वैदिक साहित्य में उल्लेख है कि देवता तथा असुर दोनों ही प्रजापति से उत्पन्न हुए, अन्तर इतना ही है कि एक श्रेणी के लोग वैदिक आदेशों को मानते हैं और दूसरे नहीं मानते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द्वौ= दो; भूत-सर्गौ= जीवों की सृष्टियाँ; लोक= संसार में; अस्मिन्= इस; दैवः= दैवी; आसुरः= आसुरी; एव= निश्चय ही; च= तथा; दैवः= दैवी; विस्तरशः= विस्तार से; प्रोक्तः= कहा गया; आसुरम्= आसुरी; पार्थ= हे पृथापुत्र; मे= मुएसे; शृणु= सुनो।

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