श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 76

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-31

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥[1]

भावार्थ

क्षत्रिय होने के नाते अपने विशिष्ट धर्म का विचार करते हुए तुम्हें जानना चाहिए कि धर्म के लिए युद्ध करने से बढ़ कर तुम्हारे लिए अन्य कोई कार्य नहीं है। अतः तुम्हें संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

तात्पर्य

सामाजिक व्यवस्था के चार वर्णों में द्वितीय वर्ण उत्तम शासन के लिए है और क्षत्रिय कहलाता है। क्षत् का अर्थ है चोट खाया हुआ। जो क्षति से रक्षा करे वह क्षत्रिय कहलाता है (त्रायते – रक्षा प्रदान करना)। क्षत्रियों को वन में आखेट करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। क्षत्रिय जंगल में जाकर शेर को ललकारता और उससे आमने-सामने अपनी तलवार से लड़ता है। शेर की मृत्यु होने पर उसकी राजसी ढंग से अन्त्येष्टि की जाती थी। आज भी जयपुर रियासत के क्षत्रिय राजा इस प्रथा का पालन करते हैं। क्षत्रियों को विशेष रूप से ललकारने तथा मारने की शिक्षा दी जाती है क्योंकि कभी-कभी धार्मिक हिंसा अनिवार्य होती है। इसलिए क्षत्रियों को सीधे संन्यासाश्रम ग्रहण करने का विधान नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्व-धर्मम् – अपने धर्म को; अपि – भी; च – निस्सन्देह; अवेक्ष्य – विचार करके; न – कभी नहीं; विकम्पितुम् – संकोच करने के लिए; अर्हसि – तुम योग्य हो; धर्म्यात् – धर्म के लिए; हि – निस्सन्देह; युद्धात् – युद्ध करने की अपेक्षा; श्रेयः – श्रेष्ठ साधन; अन्यत् – कोई दूसरा; क्षत्रियस्य – क्षत्रिय का; न – नहीं; विद्यते – है।

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