श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 225

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥[1]

भावार्थ

इस संसार में दिव्य ज्ञान के सामान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है। ऐसा ज्ञान समस्त योग का परिपक्व फल है। जो व्यक्ति भक्ति में सिद्ध हो जाता है, वह यथा समय अपने अन्तर में इस ज्ञान का आस्वादन करता है।

तात्पर्य

जब हम दिव्य ज्ञान की बात करते हैं तो हमारा प्रयोजन अध्यात्मिक ज्ञान से होता है। निस्सन्देह दिव्य ज्ञान के सामान कुछ भी उदात्त और शुद्ध नहीं है। अज्ञान ही हमारे बन्धन का कारण है और ज्ञान हमारी मुक्ति का। यह ज्ञान भक्ति का परिपक्व फल है। जब कोई दिव्य ज्ञान की अवस्था प्राप्त कर लेता है, तो उसे अन्यत्र शान्ति खोजने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि वह मन ही मन शान्ति का आनन्द लेता रहता है। दूसरे शब्दों में, ज्ञान तथा शान्ति का पर्यवसान कृष्णभावनामृत में होता है। भगवद्गीता के सन्देश की यही चरम परिणति है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न – कुछ भी नहीं; हि – निश्चय ही; ज्ञानेन – ज्ञान से; सदृशम् – तुलना में; पवित्रम् – पवित्र; इह – इस संसार में; विद्यते – है; तत् – उस; स्वयम् – अपने आप; योग – भक्ति में; संसिद्ध – परिपक्व होने पर; कालेन – यथासमय; आत्मनि – अपने आप में, अन्तर में; विन्दति – आस्वादन करता है।

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