श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 278

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-20-23

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योग सेवया।
यत्र चैवत्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥
सुख मात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यास्मन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्॥[1]

भावार्थ

सिद्धि की अवस्था में, जिसे समाधि कहते हैं, मनुष्य का मन योगाभ्यास के द्वारा भौतिक मानसिक क्रियाओं से पूर्णतया संयमित हो जाता है। इस सिद्धि की विशेषता यह है कि मनुष्य शुद्ध मन से अपने को देख सकता है और अपने आपमें आनन्द उठा सकता है। उस आनन्दमयी स्थिति में वह दिव्य इन्द्रियों द्वारा असीम दिव्यासुख में स्थित रहता है। इस प्रकार स्थापित मनुष्य कभी सत्य से विपथ नहीं होता और इस सुख की प्राप्ति हो जाने पर वह इससे बड़ा कोई दूसरा लाभ नहीं मानता। ऐसी स्थिति को पाकर मनुष्य बड़ी से बड़ी कठिनाई में भी विचलित नहीं होता। यह निस्सन्देह भौतिक संसर्ग से उत्पन्न होने वाले समस्त दुःखों से वास्तविक मुक्ति है।

तात्पर्य

योगाभ्यास से मनुष्य भौतिक धारणाओं से क्रमशः विरक्त होता जाता है। यह योग का प्रमुख लक्षण है। इसके बाद वह समाधि में स्थित हो जाता है, जिसका अर्थ यह होता है कि दिव्य मन तथा बुद्धि के द्वारा योगी अपने आपको परमात्मा समझने का भ्रम न करके परमात्मा की अनुभूति करता है। योगाभ्यास बहुत कुछ पतञ्जलि की पद्धति पर आधारित है। कुछ अप्रामाणिक भाष्यकार जीवात्मा तथा परमात्मा में अभेद स्थापित करने का प्रयास करते हैं और अद्वैतवादी इसे ही मुक्ति मानते हैं, किन्तु वे पतञ्जलि की योगपद्धति के वास्तविक प्रयोजन को नहीं जानते। पतञ्जलि पद्धति में दिव्य आनन्द को स्वीकार किया गया है, किन्तु अद्वैतवादी इस दिव्य आनन्द को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उन्हें भ्रम है कि इससे कहीं उनके अद्वैतवाद में बाधा न उपस्थित हो जाये। अद्वैतवादी ज्ञान तथा ज्ञाता के द्वैत को नहीं मानते, किन्तु इस श्लोक में दिव्य इन्द्रियों द्वारा अनुभूत दिव्य आनन्द को स्वीकार किया गया है। योगासूत्र में[2] महर्षि कहते हैं– पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यत्र – जिस अवस्था में; उपरमते – दिव्यसुख की अनुभूति के करण बन्द हो जाती है; चित्तम् – मानसिक गतिविधियाँ; निरुद्धम् – पदार्थ से निवृत्त; योग-सेवया – योग के अभ्यास द्वारा; यत्र – जिसमें; च – भी; एव – निश्चय हि; आत्मना – विशुद्ध मन से; आत्मानम् – आत्मा की; पश्यन् – स्थिति का अनुभव करते हुए; आत्मनि – अपने में; आत्मानम् – आत्मा की; पश्यन् – स्थिति का अनुभव करते हुए; आत्मनि – अपने में; तुष्यति – तुष्ट हो जाता है; सुखम् – सुख; आत्यन्तिकम् – परम; यत् – जो; तत् – वह; बुद्धिः – बुद्धि से; ग्राह्यम् – ग्रहणीय; अतीन्द्रियम् – दिव्य; वेत्ति – जानता है; यत्र – जिसमें; न – कभी नहीं; च – भी; एव – निश्चय हि; अयम् – यह; स्थितः – स्थित; चलति – हटता है; तत्त्वतः – सत्य से; यम् – जिसको; लब्ध्वा – प्राप्त करके; च – तथा; अपरम् – अन्य कोई; लाभम् – लाभ; मन्यते – मानता है; न – कभी नहीं; अधिकम् – अधिक; ततः – उससे; यस्मिन् – जिसमें; स्थितः – स्थित होकर; न – कभी नहीं; दुःखेन – दुखों से; गुरुणा अपि – अत्यन्त कठिन होने पर भी; विचाल्यते – चलायमान होता है; तम् – उसको; गुरुणा अपि – अत्यन्त कठिन होने पर भी; विचाल्यते – चलायमान होता है; तम् – उसको; विद्यात् – जानो; दुःख-संयोग – भौतिक संसर्ग से उत्पन्न दुख; वियोगम् – उन्मूलन को; योग-संज्ञितम् – योग में समाधि कहलाने वाला।
  2. 3.34

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